SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 61
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कुशोलता] ३६३,जैन-लक्षणावली [कूटलेख शीलं तदुत्तरगुणभङ्गेन केनचित् कषायोदयेन वा इन्द्रजाल प्रादि के द्वारा मनुष्यों को विस्मित करने कुत्सितं येषां ते कुशीलाः । (त. भा. हरि. व सिद्ध. वाले साधु को कुहनकुशील कहते हैं। व.६-४८)। ३. कत्सितशीलः कुशीलः ।XXX कट-१. कुटयते दह्यते अमूना परः परिणामान्तनवम, लोकप्रकटकुत्सितशील: इति विवेकोऽत्र ग्राह्यः। रेणेति कूटम्, सत्त्वग्रहणं व कूटम, तद्वत् परिणामः । (भ. प्रा. विजयो. १९५०)। ४. कुशीलः शील- (त. भा. सिद्ध. वृ. ८-१०, पृ. १४३)। २. कागुंदुविकलः । (प्रायश्चितस वृ. २२६)। ५. क्रोधादि. रादिधरणट्ठमोद्दिदं कूडं णाम । (धव. पु. १३, पृ. कषायकलुषितात्मा व्रत-गुण-शीलैः परिहीणः संघ. ३४); मेरु-कुलसेल-विझ-सज्झादिपव्वया कूडाणि स्यानयकारी कुशीलः । (चा. सा. पृ. १३)। ६. णाम । (धव. पु. १४, पृ. ४६५)। ३. मत्स्यxxx स्यात्कुशीलकः । संघाहितकरस्तीवकषायो कच्छप-मूषकादिग्रहणार्थमवष्टब्ध काष्ठादिमयं व्रतवजितः ।। (प्राचा. सा. ६-५०)। ७. कुशीलो कटम । (गो. जी. म. प्र. व जी. प्र. टी. ३०३)। जात्या जीवनादिपरो भिन्नाचारः। (व्यव. मलय. १ जिस परिणाम के द्वारा दूसरा कटा या जलाया व. ३-१६५, पृ. ३५)। ८. मूलोत्तरगुणविराधनात् जाता है-उसे कष्ट में डाला जाता है-उसे कट संज्वलनकषायोदयाद्वा कुत्सितं शीलं चारित्रं यस्य कहा जाता है। यह माया कषाय का एक नामान्तर स कशीलः । (प्रव. सारो.व. ७२५, पृ. २११)। है। २ कौवा और चहा आदि पकडने के लिये जो १ जो जातिविषयक, कुलविषयक, गणविषयक, कर्म- उपकरणविशेष रचा जाता है, उसका नाम कूट है। विषयक, शिल्पविषयक, तपविषयक और श्रुतविषयक; मेरु-कलाचल, सह्य और विन्ध्य प्रादि पर्वतों के इन सात प्राजीविकानों का प्राश्रय लेता है, उसे ऊपर अवस्थित शिखरविशेष भी कूट कहलाते हैं। कुशील कहते हैं। २ जो अठारह हजार भेदभूत शील कूटग्राह-कूटेन जीवान् गृह्णातीति कूटग्राहः । को उत्तरगण की विराधना अथवा किसी कषाय के (विपाक. अभय. वृ. २, पृ. २२)। उदय से मलिन किया करते हैं, वे कशील कहलाते कुट से-पिंजरा प्रादि उपकरणविशेष से-जीवों हैं। ६ जो साधु लोक प्रसिद्ध कुत्सित शील से को जो पकड़ा करता है उसे कूटग्राह कहते हैं । संघ के लिए अहितकर कषाय से–सहित हो, उसे कुशील कहते हैं। कूटतुला-मान-कूटतुला-कूटमाने-तुला प्रतीता, मानं कुड्यादि, कूटत्वं न्यूनाधिकत्वम्-न्यूनया कुशीलता-कुशीलता दुःस्वभावता उपस्थसंयमा ददाति अधिकया गृह्णाति । (श्रा. प्र. टी. २६८)। भावो वा । (योगशा. स्वो. विव. २.८४, पृ. ३५३)। तुला (तराजू या कांटा) और नापने के बांटों को दुष्टस्वभावता या स्पर्शन इन्द्रियविषयक संयम के प्रभाव को कुशीलता कहते हैं । हीन-अधिक रखना-हीन से देना और अधिक से लेना, यह कूटतुला-मान नाम का एक अचौर्याणवत कुशल-प्रमाणांगुलपरिमितयोजनायामविष्कम्भावगाहानि त्रीणि पल्यानि, कुशूल इत्यर्थः । (त. वा. का अतिचार है। ३, ३८, ८)। कूटयुद्ध-अन्याभिमुख प्रमाणकमुपक्रम्यान्योपघातप्रमाणांगल से निष्पन्न एक योजन प्रमाण लम्बे व करणं कूटयुद्धम् । (नीतिवा. ३०-९०)। चौड़े और उतने अवगाह वाले पल्यों को (गों को) किसी अन्य शत्र की ओर आक्रमण के लिए कछ कुशूल कहते हैं। प्रस्थान करके लौट पाना और दूसरे शत्रु का घात कुश्रुतज्ञान-मिथ्यादर्शनोदयप्तहचरितं श्रुतज्ञान- करना, इसे कूटयुद्ध कहा जाता है। मेव कश्रुतज्ञानम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. ४१)। कूटलेख-देखो कूटलेखक्रिया । तथा कूटमसद्भूतम्, मिथ्यादर्शन के उदय से सहचरित श्रुतज्ञान को तस्य लेखो लेखनं कूटलेखः-अन्यस्वरूपाक्षर-मुद्राकुश्रुतज्ञान कहते हैं । करणम्। (वोगशा. स्वो. विव.३-६१)। कहनशील-इन्द्रजालादिभियों जनं विस्मामयति । बनावटी लेख लिखना--दुसरे के हस्ताक्षर बनाना मोऽभिधीयते कहनकशीलः । (भ.प्रा. विजयो. टी. या महर आदि का अंकित करना, इसका नाम कट१९५०)। लेख है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy