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________________ कुपात्र ] कुन्थु चूंकि स्वर्ग से लाकर उक्त पृथिवी पर स्थित हुए, अतः कुन्थु कहलाये । कुन्थु नाम राशि का भी है । कुन्थुनाथ की जननी ने उनके गर्भ में स्थित होते पर रत्नों की राशि को देखा था, इसलिए भी a 'कुन्थु' के नाम से प्रसिद्ध हुए । कुपात्र- - १. जं रयणत्तयरयिं मिच्छामय कहियधम्मलग्गं । जइ वि हृ तवइ सुघोरं तहावि तं कुच्छियं पत्तं ॥ ( भावसं. दे. ५३० ) । २. चरति यश्चरणं परदुश्चरं विकटघोर कुदर्शनवासितः । निखिलसत्त्वहितोद्यतचेतनो वितथकर्कशवाक्यपराङ्मुखः । धन- कलत्रपरिग्रहनिःस्पृहो नियमसंयमशीलविभूषितः । कृतकषाय- हृषीक विनिर्जयः प्रणिगदन्ति कुपात्रमिमं बुधाः ।। ( श्रमित. श्रा. १०, ३४-३५ ) । ३. कुपात्राय सम्यक्त्वरहितव्रत तपोयुक्ताय XX XI (सा. ध. स्व. टी. २-६७ ) ; निर्दर्शनं व्रतनिकाययुतं कुपात्रं XXX ॥ ( सा. ध. २-६७ टिप्पण) । २ जो घोर मिथ्यात्व के वशीभूत होकर दुष्कर तपइचरण करते हैं; श्रहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह व्रत को धारण करते हैं; नियम, संयम और शील से विभूषित हैं तथा कषायों एवं इन्द्रियों के जीतने वाले हैं; वे कुपात्र कहे जाते हैं । कुप्य - १. कुप्यं क्षौम कार्पास कौशेय चन्दनादि । ( स. सि. ७-२६; त. वा. ७-२६ कार्तिके. टी. ३४०)। २. कुप्यं रूप्य सुवर्णव्यतिरिक्तं कांस्य - लोहताम्र-सीसक-त्रपु-मृद्भाण्ड - त्वचिसार विकारोदङ्किकाष्ठमञ्चक-मञ्चिका-मसूरक-रथ-शकट-हलप्रभृतिद्रव्यम् । (योगशा. स्वो विव. ३ - ९५ ) । ३. कुप्य शब्दो घृताद्यर्थस्तद्भाण्डं भाजनानि वा ॥ ( लाटीसं. ६-१०७) । २ चांदी और सुवर्ण को छोड़कर कांसा, लोहा, तांबा, सीसा, रांगा और मिट्टी के वर्तन कुप्य कहलाते हैं । इसके अतिरिक्त बांस के विकारभूत, उदङ्कि, काष्ठमंचक ( लकड़ी का मचान), मंचिका, मसूर, रथ, गाड़ी और हल श्रादि द्रव्यों को भी कुप्य कहा जाता है। कुप्यप्रमाणातिक्रम - १. तथा कुप्यं श्रासन-शयनादि-गृहोपस्करः, तस्य यन्मानं तस्य पर्यायान्तरारोपणेनातिक्रमोऽतिचारो भवति । (ध. बि. मु. वृ. (३ - २७ ) । २. कुप्यस्य भावतः संख्यातिक्रमो यथा 1 ३५६, जैन - लक्षणावली Jain Education International [ कुप्रावचनिक भावावश्यक कुप्यस्य या संख्या कृता तस्याः कथञ्चिद् द्विगुणत्वे सति व्रतभङ्गभयाद् भावतो द्वयोर्द्वयोर्मीलनेन एकीकरणरूपात् पर्यायान्तरात् स्वाभाविकसंख्यावाधनात् संख्यामात्र पूरणाच्चातिचारः । अथवा भावतोऽभिप्रायादर्थित्वलक्षणाद् विवक्षितकालावधेः परतो ग्रहीष्यामि श्रतो नान्यस्मै देयमिति पराप्रदेयतया व्यवस्थापयतोऽतिचारः । (योगशा. स्वो विव. ३-६६ ) । १ श्रासन और शय्या ( पलंग आदि ) श्रादि घर के उपस्कर (सामग्री) को कुप्य कहा जाता है । परिग्रहपरिमाणव्रत के भीतर गृहीत इस कुप्य के प्रमाण के उल्लंघन करने को कुप्यप्रमाणातिक्रम कहते हैं । कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक - से कि तं कुप्पावयणि दव्वावस्सयं ?, २ जे इमे चरग-चीरिगचम्मखंडग्र- भिक्खोंड पंडुरंग-गोश्रम - गोव्वतिन गिहिधम्मधम्मचिंतग अविरुद्ध विरुद्ध-वुड्ढ - सावगप्पभितश्रो पासंडत्था कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए जाव ते सा जलते इंदस्स वा खंदस्स वा रुट्स्स वा सिवस्स वा वेसमणस्स वा देवस्स वा नागस्स वा जवखस्स वा भूअस्स वा मुगुंदस्स वा अज्जाए वा दुग्गाए वा कोट्टकिरियाए वा उवलेवण-संमज्जण प्रावरिसण धूव- पुप्फगंधमलाइ आई दव्वावस्सयाई करेंति से तं कुप्पावयणिनं दव्वावस्सयं । (अनुयो. सू. २०) । चरक, चीरिक, चर्मखण्डक, भिक्षोण्ड, पांडुरंग, गोतम, गोव्रतिक, गृहिधर्मा, धर्मचिन्तक, श्रविरुद्ध ( वैनयिक), विरुद्ध ( श्रक्रियावादी) वृद्ध ( तापस ) और श्रावक (ब्राह्मण ) श्रादि (परिव्राजक प्रादि) विविध पाखण्डस्थ ( व्रतस्थ ) जनों के द्वारा प्रभात समय की विविध अवस्थाओं ( कल्प, प्रादुः प्रभाता रजनी और सुविमला श्रादि - सूत्र १९ ) में जो इन्द्र, स्कन्ध (कार्तिकेय), रुद्र, शिव, वैश्रवण, देव, नाग, यक्ष, भूत, मुकुन्द, आर्या, दुर्गा अथवा कोट्टक्रिया की— उनके श्रायतन की— उपलेपन, सम्मार्जन, श्रावर्षण, धूप, पुष्प और गन्धमाल्य श्रादि रूप से सेवा की जाती है; उसे कुप्रावचनिक द्रव्यावश्यक कहते हैं । कुप्रावचनिक भावावश्यक ( कुप्पावयरिणश्रं भावावस्य ) - से किं तं कुप्पावयणिय भावावस्वयं ?, २ जे इमे चरग चीरिंग जाव पासंडत्था इज्जजलि होम जपोन्दुरुक्क-नमोक्का रमाइलाई भावा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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