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________________ काहलत्व] ३५६, जैन-लक्षणावली [किल्विषिक (पंचा. का. जय. वृ. २५) । ३. निमेषाष्टकैः में अधिक शोभा से सम्पन्न और मुकुट से विभूषित काष्ठा । (नि. सा. व. ३१)। होते हैं उन देवों को किन्नर कहते हैं । १ पन्द्रह अक्षि-निमेष (पलक) प्रमाण काल को किम्पुरुष-किम्पुरुषा ऊरु-बाहुष्वधिकशोभा मुखेकाष्ठा कहते हैं। ३ पाठ निमेषों की एक काष्ठा ध्वधिकभास्वरा विविधाभरणभूषणाश्चित्रस्रगानुलेहोती है। पनाश्चम्पकवृक्षध्वजाः। (त. भा. ४-१२; बृहत्सं. काहलत्व-काहलमव्यक्तवर्णं वचनम्, तद्योगात्पुरु- __ मलय. वृ. ५८)। षोऽपि काहलः, तस्य भावः काहलत्वम् । (योगशा. ऊरु और भुजाओं में अधिक शोभा से सम्पन्न, मुख स्वो. विव. २-२३)। में अतिशय भास्वर, नाना प्रकार के प्राभरणों से काहल का अर्थ अव्यक्त वर्णवाला वचन होता है। भूषित, विविध वर्ण के पुष्पों की मालाओं के धारक उसके सम्बन्ध से जो व्यक्ति वचन का स्पष्टता से एवं चम्पक वृक्ष की ध्वजा वाले देवों को किम्पुरुष उच्चारण नहीं कर सकता है उसे भी काहल कहा कहते हैं। जाता है। मनुष्य का काहल होना असत्य भाषण किरात-अल्पाखिलशरीरावयवः किरातः। (नीतिका परिणाम है। वा. १४-१४)। कांक्षा-१. ऐहलौकिक-पारलौकिकेषु विषयेष्वा- शरीर के थोड़े अंगों को ढांकने वाले मनुष्य को शंसा काङ्क्षा। (त. भा. ७-१८)। २. कंखा किरात कहते हैं।। अन्नन्नदंसणग्गाहो। (श्रा. प्र. ८७)। ३. कांक्षा किलिकिंचित-१. स्मित-हसित-रुदित-भय-रोषअन्योन्यदर्शनग्राहः। (श्रा. प्र. टी. ५६ व ८७)। गर्व-दुःख-श्रमाभिलाषसंकरः किलिकिंचितम् । ४. काङ्क्षणं कांक्षा, सुगतादिप्रणोतदर्शनेषु ग्राहोऽभि- (काव्यानुशासन ७, पृ. ३१२)। २. किलिकिंचितं लाष इत्यर्थः। तथा चोक्तम्-कंखा अन्नन्नदंसणग्गाहो। रोषभयाभिलाषादिभावानां युगपदसकृत् करणम् । (प्राव. हरि. व. १५६१, पृ. ८१४)। ५. काङ्क्षणं (रायप. मलय. वृ. पृ. १७)। कांक्षा अर्जनमतिपरिणामाविच्छेदः । (त. भा. सिद्ध. २ रोष, भय एवं अभिलाषा प्रादि भावों के संकर वृ. ७-१२); भविष्यत्कालोपादानविषया काना। या मिश्रण को किलिकिचित कहते हैं। (त. भा. सिद्ध. व. ८-१०)। ६. काङ्क्षा अन्या- किल्विष--देखो किल्विषिक । किल्विषाश्चान्त्यजोन्यदर्शनग्रहः । (योगशा. स्वो. विव. २-१७)। पमाः । (त्रि. श. पु. च. २, ३, ७७४) । १ इस लोक सम्बन्धी और परलोक सम्बन्धी विषयों जो देव अन्त्यज (घृणित, चाण्डाल या अस्पृश्य) की अभिलाषा का नाम काङ्क्षा है। वह सम्यग्दर्शन प्रादि के समान हीन होते हैं वे किल्विष कहे जाते का एक अतिचार है। २ बौद्धादि विभिन्न दर्शनों हैं। के ग्रहण को काङ्क्षा कहा जाता है। ५ धनार्जनादि किल्विषकर्मा-किल्विषाणि-क्लिष्टतया निकृके विचार का न छोड़ना, यह काङ्क्षा कहलाती है। ष्टान्यशुभानुबन्धीनि कर्माणि येषां यह मूर्छाका एक नामान्तर है। मणिः । (उत्तरा. नि. शा. वृ. ५, पृ. १८३)। कितव-कितवो द्यूतकारः। (नीतिवा. १४-१३)। पापबन्ध के कारणभूत घृणित कार्य के करने वाले जुआ खेलने वाले को कितव कहते हैं। देव किल्विषकर्मा कहे जाते हैं। किन्नर-१. तत्र किन्नराः प्रियंगुश्यामाः सौम्याः सौम्यदर्शना मुखेष्वधिकरूपशोभा मुकुटमौलिभूषणा ल्विषिकाः। (स. सि. ४-४)। २. किल्विषिका अशोकवृक्षध्वजा प्रवदाताः। (त. भा. ४-१२)। अन्तस्थस्थानीया इति । (त. भा. ४-४)। ३. अन्त्य२. किन्नरनामकर्मोदयात् किन्नराः। (त. वा. ४, वासिस्थानीयाः किल्विषिकाः । किल्विषं पापम्, ११,३)। ३. किन्नराः सौम्यदर्शना मुखेष्वधिक- तदेतेषामस्तीति किल्विषिकाः। ते अन्त्यवासिस्थारूपशोभा मुकुटमौलिभूषणाः। (बृहत्सं. व ५८)। नीया मताः । (त. वा. ४, ४, १०) । ४. किल्विषं १ जिनकी ध्वजा में अशोक वृक्ष का चिह्न होता है, पापम्, तदेषामस्तीति किल्विषिका: । (त. श्लो. तथा जो प्रियंगु के समान कृष्णवर्ण, रमणीय, मुखों ४-४)। ५. मता: किल्विषमस्त्येषामिति किल्बि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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