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________________ कालात्ययापदिष्ट ३२७) । ३. प्रकाले भोजनं कालातिक्रमः । श्रनगाराणाम् प्रयोग्यकाले भोजनं कालातिक्रम इति कथ्यते । (त. वा. ७, ३६, ५) । ४. उचितो यो भिक्षाकालः साधूनां तमतिक्रमय्यानागतं वा भुङ्क्ते पौषधोपवासी, स च कालातिक्रमो ग्रहीतुरप्रीतिकरोप्रस्तावाददानं चेत्यतीचारः । ( त. भा. सिद्ध वृ. ५. अनगाराणामयोग्ये काले भोजनं कालातिक्रम इति । (चा. सा., पृ. १४) । ६. तथा कालस्य साघूचित भिक्षासमयस्यातिक्रमः - श्रदित्सयाऽनागतभोजनपश्चाद् भोजनद्वारेणोल्लंघनं कालातिक्रमोऽतिचार इति । भावना पुनरेवम् - यदाऽनाभो. गादिनाऽतिक्रमादिना वा एतानाचरति तदाऽतिचारो ऽन्यदा तु भङ्ग इति । (ध. बि. मु. वृ. ३-३४) । ७. कालातिक्रमः साधूनामुचितस्य भिक्षासमयस्य ७-३१) । ३५४, जैन- लक्षणावली नम् । स च यतीनयोग्ये काले भोजयतोऽनगारबेलाया वा प्रागेव पश्चाद्वा भुञ्जानस्य च तृतीयः स्यात् । ( सा. ध. स्वो टी. ५-५४) । ८. अकाले भोजनम् श्रनगाराऽयोग्यकाले दानं क्षुधितेऽनगारे विमर्दकरणं च कालातिक्रमः । (त. वृत्ति श्रुत. ७ - ३६) ६. ईषन्न्यूनाच्च मध्याह्नाद्दानकालादधोऽथवा । ऊर्ध्वं तद्भावना हेतोर्दोषः कालव्यतिक्रमः ॥ (लाटीसं. ६ - २३१) । १ साधुनों को बाहार देने का जो समय निश्चित है उसका उल्लंघन करके उससे आगे या पीछे प्राहारदान देने को कालातिक्रम नाम का प्रतिचार कहते हैं । कालात्ययापदिष्ट - १. बाधितविषयः कालात्ययापदिष्ट: । ( न्यायदी. पृ. ८७) । २. प्रमाणबाधितकार्यानन्तरप्रयुक्तः कालात्ययापदिष्टः । ( प्रमाल. व. ८६) । १ जिस हेतु का विषय (साध्य) प्रत्यक्षादि से बाधित हो उसे कालात्ययापदिष्ट कहते हैं। कालानुगम -- जम्हि जेण वा वत्तव्यं परूविज्जदि सो श्रणुगम । ( धव. पु. ६, पृ. १४१) । जिसमें या जिसके द्वारा वक्तव्य (काल) की प्ररूपणा जाती है वह कालानुगम कहलाता है । कालानुपूर्वी- -तत्र द्रव्य-पर्यायत्वात्कालस्य त्र्यादिसमयस्थित्याद्युपलक्षितद्रव्याण्येव । XXX सिमयस्थित्यणुकादि द्रव्य-पर्याययोः कथंचिदभेदेऽपि भानुपूर्व्यधिकारात् तत्प्राधान्यात् कालानुपूर्वीति । Jain Education International [कालिक्युपदेशजात एवं यावदसंख्येयसमयस्थितिः, एवमेकसमयस्थित्यनानुपूर्वी द्विसमयस्थित्यवक्तव्यम् । (अनुयो. हरि. वृ. पृ. ५१ ) । काल चूंकि द्रव्य पर्यायरूप है, अतः तीन शादि समयरूप स्थिति श्रादि से उपलक्षित द्रव्यों को ही कालानुपूर्वी कहा जाता है। इसी प्रकार चार समय आदि प्रसंख्यात समयरूप स्थिति से उपलक्षित द्रव्यों को ही कालानुपूर्वी समझना चाहिये । एकसमयस्थिति श्रानुपूर्वीरूप नहीं है, तथा दोसमयस्थिति वक्तव्य है । कालानुयोग- कालस्यानुयोगो यथा समयस्यानुयोगद्वारेषु प्ररूपणा, कालानामनुयोगः प्रभूतानां समयावलिकादीनां प्ररूपणा XX X | ( श्राव. नि. मलय. वृ. १२६ पृ. १३१) । समय की अनुयोगद्वारों में प्ररूपणा करने तथा समय, श्रावली, मुहूर्त श्रादि काल के प्रचुर भेद-प्रभेदों की प्ररूपणा करने को कालानुयोग कहते हैं । कालान्तरवर्तिनी कालान्तरवर्तिनी मृद्रव्यं पिण्डाद्याकारेण मृद्भावं प्रक्षीणमपहाय पिण्डादिरूपेण परिणमते । ( त. भा. सिद्ध वृ. ६–७, पू. २२१) । कुछ काल के अन्तर से होने वाली उत्पत्ति को कालान्तरवत्तिनी उत्पत्ति कहते हैं। जैसे - मिट्टी नियत समय के पश्चात् पूर्व श्रवस्था को छोड़कर पिण्डस्वरूप से परिणत होती है, यह उसकी कालान्तरवर्तिनी उत्पत्ति कही जाती है । कालावग्रह - दो सागरा उ पढमो, चक्की सत्तसय पुव्व चुलसीई | सेसनिवम्मि मुहुत्तं जहन्नमुक्कोसए भयणा । (बृहत्क. भा. ६८२ ) । देवेन्द्र - सौधर्म इन्द्र का -- कालावग्रह दो सामरोपम प्रमाण है, क्योंकि उसकी स्थिति दो सागरोपम काल तक है । चक्रवर्ती का कालावग्रह जघन्य से - ब्रह्मदत्त के समान सात सौ वर्ष और उत्कर्ष से - भरत चक्रवर्ती के समान - चौरासी लाख पूर्व वर्ष है । शेष राजानों का कालावग्रह जघन्य से श्रन्तर्मुहूर्त है । उनका उत्कृष्ट कालावग्रह भजनीय है - एक समय अधिक अन्तर्मुहूर्त से लेकर चौरासी लाख पूर्व वर्ष तक अपनी श्रायु के समान है । कालिक्युपदेशजात - इहा दिपदलोपाद्दीर्घकालिकी कालिक्युच्यते, संज्ञेति प्रकरणाद् गम्यते, उपदेशन For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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