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________________ पृच्छनीभाषा] ७२४, जैन-लक्षणावली [पृथक्त्ववितर्कवीचारशुक्ल. ९-२५) । ७. मूत्रादौ शङ्कित प्रश्नो गुरूणां पृच्छना तीन से प्रागे और नौ से पूर्व की जो संख्या ४-५ प्रादि मता । (लोकप्र. ३०-६७)। है वह संख्या पृथक्त्व के अन्तर्गत मानी जाती है। १ सूत्र या अर्थ के विषय में पूछना, इसका नाम पृथक्त्वविक्रिया-पृथक्त्वविक्रिया स्वशरीरादन्यपृच्छना है। ३ प्रागमप्ररूपित अर्थ के अज्ञात त्वेन प्रासाद-मण्डपादिविक्रिया । (त. वा. २, (अनिश्चित) होने पर उसके विषय में जो प्रश्न ४७, ४)। किया जाता है, इसे पृच्छना कहा जाता है। यह अपने अरीर से भिन्न जो भवन एवं मण्डप आदि पागमाधिकारविषयक उपयोग का एक भेद है। रूप विविध क्रिया की जाती है उसका नाम पृच्छनी भाषा--पृच्छनी अविज्ञातस्य सन्दिग्धस्य पृथक्त्वविक्रिया है। कस्यचिदर्थस्य परिज्ञानाय तद्विदः पार्श्वे चोदना। पृथक्त्ववितर्कवीचारशुक्लध्यान-१. दव्वाई (प्रज्ञाप. मलय. वृ. ११-१६५, पृ. २५६)। अणेयाइं तीहि वि जोगेहिं जेण ज्झायंति । उवसंतअज्ञात अथवा सन्दिग्ध किसी पदार्थ के परिज्ञानार्थ मोहणिज्जा तेण पुधत्तं त्ति तं भणिया । जम्हा सुदं तद्विधयक अज्ञान को दूर करनेवाले किसी विद्वान वितक्कं जम्हा पूव्वगदपत्थकसलो य। ज्झायदि के पास में जिस भाषा में पूछा जाता है वह पृच्छनी भाणं एवं सवितक्कं तेण तं झाणं ॥ अत्थाण वंजभाषा कहलाती है। णाण य जोगाणं य संकमो हु वीचारो। तस्स य भावेण पृच्छाविधि-द्रव्य-गुण-पर्यय-विधि-निषेधविषय- तयं सुत्ते उत्तं सवीचारं ॥ (भ.पा. १८८०-८२; प्रश्नः पृच्छा, तस्याः क्रमः अक्रमप्रायश्चित्तं च विधी- धव. पु. १३, पृ.७८ उद्.)। २. द्रव्यपरमाणुं भावपरयते अस्मिन्निति पृच्छाविधिः श्रुतम् । अथवा पृष्टो- माणुं वा ध्यायन्नाहितवितर्कसामर्थ्यः अर्थ-व्यञ्जने ऽर्थः पृच्छा, सा विधीयते निरूप्यतेऽस्मिन्निति पृच्छा- काय-वचसी च पृथक्त्वेन संक्रामता मनसाऽपर्याप्तविधिः श्रुतम् । (धव. पु. १३, पृ. २८५)। बालोत्साहवदव्यवस्थितेनानिशितेनापि शस्त्रेण चिराद्रव्य, गुण, पर्याय, विधि और निषेधविषयक प्रश्न तरु छिन्दन्निव मोहप्रकृतीरुपशमयन् क्षपयंश्च पृथका नाम पृच्छा है। उसके क्रम, अक्रम और अक्रम- क्त्ववितर्कवीचारध्यानभाग्भवति । (स. सि. प्रायश्चित्त का जिस श्रुत में विधान किया जाता है ९-४४)। ३. तत्थ पुहत्तवितक्कं सविचारिणामउसे नाम से पृच्छाविधि कहा जाता है। अथवा पृथग्भाबः पृथक्त्वम्, तिहि वि जोगेसु पवत्तइत्ति पूछे गये अर्थ का नाम पृच्छा है, उसका जिस श्रुत वुत्तं भवइ, अहवा पुहुत्तं णाम वित्थारो भण्णइ, सयमें निरूपण किया जाता है उसे पृच्छाविधि समझना णाणोवउत्तो अणेगेहिं परियाएहिं झायइत्ति वत्तं चाहिए। भवइ, वियक्को सुतं, विचारो णाम अत्थ-वंजणपच्छाबिधिविशेष-विधानं विधिः, पृच्छायाः जोगाण संकमणं, सह विचारेण सविचार, अत्थविधिः पृच्छाविधिः । स विशिष्यतेऽनेनेति पृच्छावि- वंजण-जोगाणं जत्थ संकमण तं सवियारं भण्णइ. तं धिविशेषः । अर्हदाचार्योपाध्याय-साधवोऽनेन प्रकारेण च झायमाणो चोद्दसपुवी सुयनाणोवउत्तो पत्थयो पृष्टव्याः, प्रश्नभङ्गाश्च इयन्त एवेति यतः सिद्धान्ते अत्यंतरं गच्छइ, वंजणानो वंजणंतर, वंजणं निरूप्यन्ते ततस्तस्य पृच्छाविधिविशेष इति संज्ञे- अक्खरं भण्णइ, जोगाउ जोगंतरं, जोगो मण-वयणत्युक्तं भवति । (धव. पु. १३, पृ. २८५)। कायजोगो भण्णइ । भणियं च---सुयनाणे उवउत्तो अरहन्त, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु से इस प्रकार अत्थंमि य वंजणमि सविचारं । झयइ चोदृसपव्वी से प्रश्न करना चाहिए तथा प्रश्न के भंग इतने हैं, पढमं झाणं सरागो उ ॥ अत्थसंकमणं चेव तहा इस प्रकार जिस श्रत में प्रश्न की विधि का विशेष वंजणसंकमं । जोगसंकमणं चेव पढमे झाणे णिगरूप से निरूपण किया जाता है उसे नाम से पृच्छा- च्छइ ।। (दशवै. चू. पृ. ३४-३५)। ४. एकाग्रविधिविशेष कहा जाता है । मना उपशान्तराग-द्वेष-मोहो नैपुण्यान्निगृहीतशरीरपृथक्त्व-पुत्तमिति तिण्हं (कोडीणं) उवरि न- क्रियो मन्दोच्छ्वासनिःश्वासः सुनिश्चिताभिनिवेषः वण्ह (कोडीणं) हेदो जा संखा सा घेत्तव्बा।(धव. क्षमावान् बाह्याभ्यन्तरान् द्रव्य-पर्यायान् ध्यायन्नापु. ३, पृ. ८६)। हितवितर्कसामर्थ्यः अर्थ-व्यञ्जने काय-वचसी च Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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