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________________ परलोकाशंसाप्रयोग] ६७०, जैन-लक्षणावली [परव्यपदेश देव भी जब ईर्ष्या, विषाद, मद, क्रोध, मान और विधानम् । (सा. घ. स्वो. टी. ४-५८) । ७. कन्यालोभादि दोषों से अभिभूत हैं; तब भला उनके दानं विवाहः, परस्य स्वपुत्रादिकादन्यस्य विवाहः परसुख कहां से हो सकता है ? इष्ट जन का वियोग विवाहः, परविवाहस्य करणं परविवाहकरणम् । (त. और देवलोक से च्युत होना, इस प्रकार के दुःखों वृत्ति श्रुत.७-२८)। को देव भी स्वर्ग में प्राप्त करते हैं। जब देवों में १ कन्यादान का नाम विवाह है, दूसरे के विवाह के इस प्रकार के दुःख पाये जाते हैं तब मनुष्यों और करने को परविवाहकरण कहा जाता है। ३ पर तियंचों का तो कहना ही क्या है, इस प्रकार को शब्द से यहां अपनी सन्तान को छोड़कर अन्य की संवेगजनक कथा परलोकसंवेजनी कथा कहलाती है। सन्तान को ग्रहण किया गया है, कन्यादान के फल परलोकाशंसाप्रयोग-एवं परलोकाशंसाप्रयोगः, की इच्छा से, अथवा स्नेह के सम्बन्ध से अन्य के परलोको देवलोकः (तस्मिन्नाशंसाभिलाषः, तस्याः पुत्र-पुत्री के विवाह करने को परविवाहकरण कहते प्रयोगः)। (श्रा. प्र. टी. २०८)। हैं । यह ब्रह्मचर्याणुव्रत का एक अतिचार है। परभव में देवलोक के पाने की इच्छा से व्रत-तप परविस्मापक-सुरजालमाइएहिं तु विम्हयं कूणइ आदि के करने को परलोकाशंसाप्रयोग कहते हैं। तम्विहजणस्स । तेसु न विम्हयइ सयं पाहट-कूहेडपरवाद-मस्करी-कणभक्षाक्षपाद-कपिल-सौद्धोदनि- एहिं च ॥ (बृहत्क. १३०१)। चार्वाक-जैमिनिप्रभृतयस्तद्दर्शनानि च परोद्यन्ते इन्द्रजाल, पहेली और वक्रोक्ति इत्यादि के द्वारा जो दुष्यन्ते अनेनेति परवादो राद्धान्तः । (धव. पु. १३, वैसे (मूर्ख) जनों को आश्चर्यचकित करता है, पृ. २७८)। . परन्तु स्वयं विस्मय को प्राप्त नहीं होता है, उसे जिस सिद्धान्त में मस्करी, कणभक्ष(कणाद), प्रक्षपाद, परविस्मापक कहा जाता है। कपिल, शौद्धोधनिक (बुद्ध), चार्वाक और जैमिनि परव्यपदेश-१. अन्यदातृदेयार्पणं परव्यपदेशः । आदि एवं उनके सिद्धान्त को दूषित किया जाता है (स. सि. ७-३६) । २. न्यदातृदेयार्पणं परव्यपउसका नाम परवाद है। . देशः । अन्यत्र दातारः सन्ति, दीयमानोऽप्यन्यस्येति परविवाहकरण-१. कन्यादानं विवाहः, परस्य वा र्पणं परव्यपदेश इति प्रतिपाद्यते । (त. वा. ७, विवाहः परविवाहः, पर.िवाहस्य करणं परविवाह- ३६, ३)। ३. परव्यपदेश इति आत्मव्यतिरिक्तो करणम । (स. सि. ७-२८)। २. सद्वद्य-चारित्र- योऽन्यः स परस्तद्वयपदेश इति समासः, साधो: पौषमोहोदयाद विवहनं विवाहः। सद्वेद्यस्य चारित्रमो- धोपवासपारणकाले भिक्षा मामि धोपवासपारणकाले भिक्षायै समपस्थितस्य प्रकटहस्य चोदयाद्विवहनं कन्यावरणं विवाह इत्याख्या- मन्नादि पश्यतः श्रावकोऽभिधत्ते परकीयमिदमिति यते । परविवाहस्य करणं परविवाहकरणम् । (त. नात्मीयमतो न ददामि, किचिद्याचितो वामिधत्ते वा. ७, २८, १; चा. सा. पृ. ६)। ३. परवि- विद्यमान एवाऽमुकस्येदमस्ति, तत्र ग वाहकरणमितीह स्वापत्यव्यतिरिक्तमपत्यं परशब्दे- तबूयमिति । (श्रा. प्र. टी. ३२७)। ४. अयमत्र नोच्यते, तस्य कन्याफललिप्सया स्नेहबन्धन वा दाता दीयमानोऽप्ययमस्येति समर्पणं परव्यपदेशः । विवाहकरणमिति । (प्राव. हरि. वृ. प्र. ६, पृ. (चा. सा. पृ. १४) । ५. परस्य प्रात्मव्यतिरिक्तस्य २५) । ४. परविवाहकरणमन्यापत्यस्य कन्याफल- व्यपदेश: परव्यपदेशः, परकीयमिदमन्नादिकमित्येवलिप्सया स्नेहसम्बन्धन वा विवाहकरणम्, स्वापत्ये- मदित्सावतः साधुसमक्ष भणनं परव्यपदेशः । (ध ध्वपि संख्याभिग्रहो न्याय्य इति । (भा.प्र. टी. बि. मु. वृ. ३-३४)। ६. परव्यपदेशः परस्यान्यस्य २७३)। ५. परेषां स्वापत्यव्यतिरिक्तानां जनानां सम्बन्धीदं गुड-खण्डादीति विशेषेणापदेशो व्याजाविवाहकरणं कन्याफललिप्सया स्नेहसम्बन्धादिना वा द्यदि वायमत्र दाता दीयमानोऽप्ययमस्येति समर्पण परिणयविधानं परविवाहकरणम् । इह च स्वापत्ये- चतुर्थः। (सा. घ. स्वो. टी. ५-५४)। ७. अपरध्वपि संख्याभिग्रहो न्याय्यः। (ध. बि. मु.व. दातुर्देयस्यार्पणम् मम कार्यं वर्तते, त्वं देहीति परव्यप३-२६)। ६. परविवाहकरणं स्वापत्यव्यतिरिक्तानां देशः, परस्य व्यपदेशः कथनं परव्यपदेशः । अथवा कन्याफललिप्सया स्नेहसम्बन्धादिना वा परिणय- परेऽत्र दातारो वर्तन्ते, नाहमत्र दायको बतेंडात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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