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________________ परत्वापरत्व] ६६३, जैन-लक्षणावली [परप्राणातिपातजननी क्रिया रागेण कुणदि जदि भावं । सो सगचरित्तभट्टो पर- अन्य की स्त्री के सेवन का नाम परदारगमन है। चरियचरो हवदि जीवो ॥ (पंचा. का. १५६)। परदृष्टिप्रशंसा-देखो अन्यदृष्टिप्रशंसा। एका२. यो हि मोहनीयोदयानुवृत्तिवशाद् रज्यमानोपयोगः न्तध्वान्तविध्वस्तवस्तुयाथात्म्यसंविदाम् । न कुर्यात् सन् परद्रव्ये शुभमशुभं वा भावमादधाति स स्वक- परदृष्टीनां प्रशंसां दृक्कलङ्किनीम् ।। (अन. ध. चरित्रभ्रष्ट: परिचरित्रचर इति उपगीयते । यतो २-८३)। हि स्वद्रव्ये शुद्धोपयोगवृत्तिः स्वचरितम्, परद्रव्ये एकान्तरूप अन्धकार के वश जिनका वस्तुस्वरूप का सोपरागोपयोगवत्तिः परचरितमिति । (पचा. का. यथार्थ ज्ञान------अनेकान्तात्मक तत्त्व का समीचीन अमृत. वृ. २५६)। बोध-लुप्त हो गया है वे परदृष्टि कहे जाते हैं। १ जो जीव रागवश परद्रव्य में शभ-अशुभ भाव उनकी प्रशंसा का नाम परदृष्टिप्रशंसा है जो को किया करता है वह अपने चरित्र से भ्रष्ट सम्यग्दर्शन को मलिन करने वाली है। होकर परचरित्रचर कहलाता है। परनिन्दा-परेषां भूताभूतदूषणपुरस्सरवाक्यं परपरत्वापरत्व-१. परत्वापरत्वे त्रिविध-प्रशंसा- निन्दा । (नि. सा. वृ. ६२)। कृते क्षेत्रकृते कालकृते इति । तत्र प्रशंसाकृते परो दूसरों के विद्यमान या अविद्यमान दोषों के प्रकट धर्मः परं ज्ञानमपरोऽधर्मः अपरमज्ञानमिति । क्षेत्र- करने को परनिन्दा कहते हैं। कृते एकदिक्कालावस्थितयोविप्रकृष्ट: परो भवति, परपरितापकारिणीडिया-परपरितापकारिणी सन्निकृष्टोऽपरः । कालकृते द्विरष्टवर्षाद् वर्षशतिक: पुत्र-शिष्य-कलत्रादिताडनम् । (त. भा. सिद्ध. वृ. परो भवति, वर्षशतिकाद् द्विरष्टवर्षोऽपरो भवति। ६-६)। (त. भा. ५-२२)। २. अतिसमीपदेशवर्तिनि अति- पुत्र, शिष्य और स्त्री आदि के ताड़न करनेवृद्ध व्रतादिगुणहीने चाण्डाले परत्वव्यवहारो उन्हें कष्ट पहुंचाने-को परपरितापकारिणी क्रिया वर्तते, दूरदेशवर्तिनि गर्भरूपे व्रतादिगुणसहिते च कहते हैं। अपरत्वव्यवहारो वर्तते ( ? )। ते द्वे अपि परत्वापरत्वे परपरिवाद–१. परेषां परिवाद: परपरिवादो उक्तलक्षणे कालकृते ज्ञातव्ये। (त. वृत्ति श्रुत. विकत्थनम् । (स्थाना. अभय. वृ. ४६)। २. पर५-२२)। परिवादः विप्रकीर्णम् परेषां गुण-दोषवचनम् । १परत्व व अपरत्व तीन प्रकार के हैं—प्रशंसाकृत, (प्रौपपा. अभय. व. ३४, पृ. ७६)। ३. परपरि क्षेत्रकृत और कालकृत । प्रशंसा की अपेक्षा धर्म व वादः प्रभतजनसमक्ष परदोषविकत्थनम् । (प्रज्ञाप. ज्ञान को पर तथा अधर्म और अज्ञान को अपर मलय. व. २८०, पृ. ४३८)। ४. परपरिवाद: माना जाता है। क्षेत्र की एक दिशा में स्थित दूर- विप्रकीर्णपरकीयगुण-दोषप्रकटनम् । (कल्पसू. वि. वर्ती को पर और निकटवर्ती को अपर कहा जाता व. ११८, पृ. १७४) । है। काल की अपेक्षा १६ वर्ष वाले की अपेक्षा २ अन्य जनों के विखरे हुए गुण-दोषों के कहने को १०० वर्ष वाले में पर और १६ वर्ष वाले में अपर परपरिवाद कहते हैं। का व्यवहार होता है । २ अतिसमीपदेशवर्ती, अति- परप्रणय-परकोप-प्रसादानूवत्तिः परप्रणेयः । वृद्ध और व्रतादि गुणों से विहीन चाण्डाल में (नीतिवा. २६-९८, पृ. ३४१)। परत्व का व्यवहार होता है। दूरदेशवर्ती, शिशु दूसरों के कहने से कोप या प्रसाद का अनुसरण और व्रतादि गुणों से सहित में अपरत्व का करने वाले राजा को परप्रणेय कहते हैं । व्यवहार होता है। इन दोनों परत्व-अपरत्व को परप्राणातिपातजननी क्रिया-परप्राणातिपातकालकृत जानना चाहिये। जननी तु मोह-लोभ-क्रोधाविष्टा प्राणव्यपरोपलक्षणा परदारगमन-आत्मव्यतिरक्तो योऽन्यः स परस्त- क्रिया । (त. भा. सिद्ध. वृ. ६-६)। स्य दाराः कलत्रं परदारास्तस्मिन् (तेषु) गमनं पर- मोह, लोभ या क्रोध के वशीभूत होकर दूसरे जीवों दारगमनम्, गमनमासेवनरूपतया दृष्टव्यम् ॥ के प्राणों का घात करने को परप्राणातिपातजननी (प्राव. हरि. व.अ. ६, पृ. ८३२) । क्रिया कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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