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________________ कायगुप्तिअतिचार] ३३८, जैन-लक्षणावली [कायपरीत षहप्रपातेऽपि कायगुप्तिर्मता मुनेः । (ज्ञानार्णव १८, भूमिपर चारों ओर हरितके होने पर या प्रबल वायु १८)। १०. उपसर्गप्रसंगेऽपि कायोत्सर्गजुषो मुनेः। के वश हरितके मानेपर क्रोधसे या अभिमानसे चुपस्थिरीभावः शरीरस्य कायगुप्तिनिगद्यते ।। शयना- चाप स्थित होना; निश्चल स्थिति कायोत्सर्ग-कायसन-निक्षेपादान-चंक्रमणेषु च । स्थानेषु चेष्टा- गुप्ति है, इस पक्षमें शरीरसे ममताका न छोडना, नियमः कायगुप्तिस्तु सा परा ॥ (योगशा. १-४३, अथवा कायोत्सर्ग में दोष लगाना, यह कायगुप्तिके ४४) । ११.xxx कायोत्सर्गस्वभावां विशर- अतिचार हैं । (मूलमें पाठ कुछ अव्यवस्थितसा रतचुरापोहदेहामनीहा-कायां वा कायगुप्ति xx दिखता है)। X॥ (प्र. ध. ४-१५६) । १२. शरीरस्याशुचिता- कायचिकित्सा-कायस्य ज्वरादिरोगग्रस्त शरीरस्य मसारताम[मा]पन्निमित्ततां भावयतस्तद्गतममत्व- चिकित्सा-रोगप्रतिक्रिया-यत्राभिधीयते तत्कायचि. परिहारः कर्मादाननिमित्तसकलकायक्रियानिवृत्तिः कित्सव (विपाक. अभय. व. ७, पृ. ४६)। कायगोचरममतात्यागपुरोगा कायगुप्तिरित्युमयं ज्वरादि रोग-ग्रस्त शरीर की चिकित्सा (उपचार) तल्लक्षणम् । (भ. प्रा. मूला. ११८८)। का जहां वर्णन किया जाता है उसे कायचिकित्सा ३ शयन, प्रासन, पादान-निक्षेप, स्थान (ऊर्ध्व- कहते हैं। स्थिति) और गमन आदि क्रियानों के करते समय कायदुःप्रणिधान-१. दुष्ठ प्रणिधानमन्यथा वा शरीर की प्रवृत्ति को नियमित रखना-जीव- दुःप्रणिधानम् । प्रणिधानं प्रयोग: परिणाम इत्यनाजन्तुओं को देख कर व रजोहरणादि से प्रमाजित न्तरम् । दुष्ठ पापं प्रणिधानं दुःप्रणिधानम्, अन्यथा कर सावधानीपूर्वक उक्त कार्यों को करना; इसका वा प्रणिधानं दुःप्रणिधानम् । तत्र क्रोधादिपरिणामनाम कायगुप्ति है। वशात दुष्ठ प्रणिधानं शरीरावयवानाम् अनितमकायगुप्तिप्रतिचार - १. असमाहितचित्ततगा वस्थानम् । (त. वा. ७, ३३, २)। २, अनिरिकायक्रियानिवृत्तिः कायगुप्तेरतिचारः। एकपादादि- क्खियापमज्जिय थंडिल्ले ठाणमाइ सेवंतो। हिंसास्थानं वा जनसंचरणदेशे, अशुभध्यानाभिनिविष्टस्य भावे वि न सो कडसामाइग्रो पमायायो। (श्रा. वा निश्चलता, प्राप्ताभासप्रतिबिम्बाभिमुखतया प्र. ३१५) । ३. शरीरावयवानामनिभृतावस्थानं वा तदाराधनव्यात इवावस्थानम्, सचित्तभूमौ कायदुःप्रणिधानम् । (चा. सा. पृ. ११)। ४. तत्र संपतत्सु समन्ततः अशेषेषु महति वा वाते हरितेषु शरीरावयवानां पाणि-पादादीनामनिभृतताऽवस्थापन रोषाद्वा दात् तूष्णीमवस्थानम्, निश्चला स्थिति: कायदुष्प्रणिधानम् । (योगशा. स्वो. विव. ३.११६)। कायोत्सर्गः, कायगुप्तिरित्यस्मिन् पक्षे शरीरममताया ५. दुष्टप्रणिधानं सावध प्रवर्तनम्, तत्र हस्त-पादाअपरित्यागः कायोत्सर्गदोषो वा कायगुप्तेरतिचारः। दीनामनिश्चयभूतत्वावस्थापनं कायदुष्प्रणिधानम् । (भ. प्रा. विजयो. १६)। २. कायगुप्ते: (अतिचारः) (सा. ध. स्वो. टी. ५-३३)। ६. काययोगस्ततोअसमाहितचित्ततया कायक्रियानिवृत्तिर्जनसंचरणदेशे ऽन्यत्र हस्तसंज्ञादिदर्शने । वर्तते तदतीचारः कायएकपादादिना अवस्थानम्, अशुभध्यानाभिनिविष्टस्य दुष्प्रणिधानकः ।। (लाटीसं. ६-१९२)। निश्चलत्वम्, प्राप्ताभासप्रतिबिम्बाभिमुखतया तदा- १ पापपूर्ण प्रयोग अथवा अन्यथा परिणति का नाम राधनव्यापृतस्येवावस्थानम, सचित्तभूम्यादी रोषाद दुष्प्रणिधान है। क्रोधादि के वश शरीर के अवयवों निश्चला स्थितिः कायोत्सर्गे तद्दोषाः कायम- को अविनीततापूर्ण रखना, इसे कायदुष्प्रणिधान मत्वात्यागो वेत्यादिकः । (भ.पा. मला. टी. १६)। कहते हैं। २ विना देखे और कोमल वस्त्रादि के १ अस्वस्थ मनसे शरीर सम्बन्धी क्रियाओंका परि. द्वारा विना प्रमार्जन किये ही निर्जन्तु स्थान में भी त्याग करना, यह कायगुप्तिका अतिचार है। अथवा कायोत्सर्ग या उपवेशन (पद्मासन आदि) करना, जनसंचारके स्थानमें एक पाँव प्रादिसे स्थित होना, यह प्रमादयुक्त होने के कारण सामायिक का कायप्रशभ ध्यानमें मग्न होकर निश्चलतापूर्वक स्थित दुष्प्रणिधान नाम का अतिचार है। होना, प्राप्ताभासों की प्रतिमानोंके सामने उनके कायपरीत-यः प्रत्येकशरीरी स कायपरीतः । प्राराधनमें तत्पर के समान अवस्थित रहना; सचित्त (प्रज्ञाप. मलय. व. १८-२५३, पृ. ३६४) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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