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________________ पदश्रुतज्ञानावरणीय कर्म] ६६०, जैन-लक्षणावली [पदस्फोट वड्ढंतो। संखेज्जे खलु उड्ढे पदणामं होदि सुद- बंधं । तं पि य होइ पयत्थं झाणं कम्माण णिद्दहणं ॥ णाणं ॥ (गो. जी. ३३४) । (भावसं. ६२६-२७)। २. पदान्यालम्ब्य पुण्यानि १ अक्षरसमास श्रुत के ऊपर एक अक्षरज्ञान की वृद्धि योगिभिर्यद्विधीयते । तत् पदस्थं मतं ध्यानं विचित्रहोने पर पद नाम का श्रुतज्ञान होता है। नयपारर्गः ॥ (ज्ञाना. ३८-१, पृ. ३८७)। ३. यानि पदश्रुतज्ञानावरणीय कर्म-पदसुदणाणस्स जमा- पंचनमस्कारपदानीति मनीषिणा। पदस्थं ध्यातुकावरणं तं पदसुदणाणावरणीयं णाम । (धव. पु. १३, मेन तानि ध्येयानि तत्त्वतः ॥ (अमित. श्रा. १५, पृ. २७८)। ३१)। ४. जं झाइज्जइ उच्चारिऊण परमेट्ठिमंतपदश्रुतज्ञान के आवारक कर्म को पदश्रुतज्ञानावरणीय पयममलं। एयक्खरादिबिबिहं पयत्थझाणं मुणेकहते हैं। यव्वं ॥ (वसु. श्रा. ४६४)। ५. णिसिऊण पंचपदसम-यत् गीतपदं नामिकादिकं यत्र स्वरे अनु- वण्णा पंचसु कमलेसु पंचठाणेसु । झाएह जहकमेणं पाति भवति तत् तत्र व यत्र गीयते तत्पदसमम्। पयत्थझाणं इमं भणियं ॥ सत्तक्खरं च मंतं सत्तसु (अनुयो. सू. मल. हेम. वृ. गा. ५०, पृ. १३२)। ठाणेसु णिससुसयवण्णं (?)। सिद्धसरूवं च सिरे एयं च जो नामिक आदि पद जिस स्वर में उतरने वाला पयत्थझाणुत्ति ॥ (ज्ञा. सा. २४-२५)। ६. यत्पहो उसको उसी स्वर में जो गाया जाता है, यह दानि पवित्राणि समालम्ब्य विधीयते। तत्पदस्थं पदसम कहलाता है। समाख्यातं ध्यानं सिद्धान्तपारगैः ॥ (योगशा. ८-१)। पदसमास-१. एदस्स पदस्स सुदणाणस्सुवरि एग- ७. स्वाध्याये यदि वा · मंत्रे गुरु-देवस्तुतावपि । क्खरसुदणाणे वढिदे पदसमासो णाम सुदणाणं चित्तस्यैकाग्रता यत्तत्पदस्थं ध्यानमुच्यते ॥ (ग. ग. होदि । एवमेगक्ख रादिकमेण पदसुदणाणं वड्ढमाणं षट. स्वो. वृ. २, पृ. १० उद्.)। ८. पंचानां सद्गुरूणां गच्छदि जाव संघानो त्ति । (धव. पु. ६, पृ. २३); यत् पदान्यालम्ब्य चिन्तनम् । पदस्थध्यानमाम्नातं एदस्स मज्झिमपदसुदणाणस्सुवरि एगे अक्खरे ध्यानाग्निध्वस्तकल्मषः ॥ (भावसं. वाम. ६६२) । वढिदे पदसमासो णाम सुदणाणं होदि । पदस्स ६. महामंत्रे च मंत्रे च मालामंत्रेऽथवा स्तुतौ। उवरि अण्णेगे पदे वड्ढिदे पदसमाससुदणाणं होदि स्वप्नादिलब्धमंत्र वा पदस्थं ध्यानमुच्यते ॥ (बुद्धित्ति वोत्तुं जुत्तं । पदस्सुवरि एगेगक्खरे वड्ढिदे ण सा. ११८, पृ. २४)। पदसमाससुदणाणं होदि, अक्ख रस्स पदत्ताभावादो १ देशविरत गुणस्थान में निर्दिष्ट देवपूजा के त्ति ? ण एस दोसो, पदावयवस्स अक्खरस्स वि विधान को पदस्थ ध्यान कहा जाता है। पांच परपदव्ववएसे संते विरोहाभावादो। (धव. पु. १३, पृ. मेष्ठियों से सम्बद्ध एक अक्षर अथवा पद का जो २६७)। २. द्वयादिपदसमुदायस्तु पदसमासः । जाप किया जाता है, यह भी पदस्थ ध्यान कहलाता (शतक. मल. हेम. वृ. ३८, पृ. ४२, कर्मवि. दे. है। ६ पवित्र पदों का पालम्बन लेकर जो ध्यान स्वो. वृ. ७, पृ. १८)। किया जाता है, इसका नाम पदस्थ ध्यान है। १मध्यमपद श्रुतज्ञान के ऊपर एक अक्षर की वृद्धि ७ स्वाध्याय, मंत्र और गरु या देव की स्तति में होने पर पदसमास श्रुतज्ञान होता है। २ दो आदि जो चित्त की एकाग्रता होती है वह पदस्थ ध्यान पदों के समुदाय का नाम पदसमास है। कहलाता है। पदसमासज्ञानावरणीय कर्म-पदसमासणाणस्स पदस्फोट --- स्फोटति प्रकटीभवत्यर्थोऽस्मिन्निति जमावारयं कम्मं तं पदसमासणाणावरणीयं कम्म। स्फोटश्चिदात्मा, पदार्थज्ञानावरण-वीर्यान्तरायक्षयोप(धव. यु. १३, पृ. २७८)। शमविशिष्टः पदस्फोटः । (युक्त्यनु. टी. ४०, पृ. पदसमासश्रुतज्ञान के आवारक कर्म को पदसमास-९८)। ज्ञानावरणीय कहते हैं। जिसमें अर्थ प्रगट होता है उस चेतन प्रात्मा का पदस्थ ध्यान-१. देवच्चविहाणं जं कहियं देस- नाम स्फोट है। पदार्थज्ञानावरण और वीर्यान्तराय विरयठाणम्मि । होइ पयत्थं झाणं कहियं तं वरजि- कर्म के क्षयोपशम से विशिष्ट प्रात्मा को पदस्फोट णिदेहि ॥ एयपयमक्खरं वा जवियइ जं पंचगुरुवसं- कहते हैं। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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