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________________ नेष्ठिक ब्रह्मचारी] ६४४, जैन-लक्षणावली [नैसर्गिक सम्यग्दर्शन णिसीहियं कुणइ । सेज्जा णिसीहियाए णिसीहिया- ५-१०) । अभिमुहो होई ।। जो होइ निसिद्धप्पा निसीहिया १ जो शिर के चिह्न के रूप में शिखा (चोटी) को, तस्स भावग्रो होइ । प्रणिसिद्धस्स निसीहिय केवलमत्तं वक्ष के चिह्नस्वरूप गणधरसूत्र (यज्ञोपवीत) को, हवइ सहो ॥ प्रावस्सयंमि जुत्तो नियमणिसिद्धो• तथा कटिभाग के चिह्नस्वरूप धवल या रक्त वस्त्रत्ति होइ नायव्वो। अहवाऽवि णिसिद्धप्पा णियमा खण्ड और लंगोटी को धारण करते हुए भिक्षावृत्ति प्रावस्सए जुत्तो।। (प्राव. भा. १२०-२२, पृ. से भोजन करते हैं व देवपूजा में तत्पर रहते हैं वे २६६-६७)। २. निषिद्धात्मनश्चातिचारेभ्यः क्रिया नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहलाते हैं। २ जिसका क्रियानषेधिकीति । (प्राव. नि. हरि. व. ६६२) । काण्ड अामरणान्त स्त्री से रहित होता है उसे ३. निषिद्धात्मा अहमस्मिन् प्रविशामीति शेषसाधना. नैष्ठिक ब्रह्मचारी कहा जाता है। मन्वाख्यानाय त्रासादिदोषपरिहरणार्थम् अस्यार्थस्य नैष्टिक श्रावक-१. नैष्ठिकः निष्ठया चरति तत्र संचिका नषेधिकी। (अनुयो. हरि. वृ. पृ. ५८)। वा भवः। xxx धर्मे निष्ठा निवर्हणं यस्यासो ४. निषेधेन स्वाध्यायव्यतिरिक्त शेषव्यापार प्रतिष घटमानदेशसंयमो निरतिवारश्रावकधर्मनिर्वाहपर धेन निर्वृत्ता नैषेधिको । (व्यव. मलय. वृ. पृ. इत्यर्थः। (सा. घ. स्बो. टी. १-२०); नैष्ठिको मूलोत्तरगुणश्लाध्यतपोऽनुष्ठाननिष्ठः । (सा. घ. स्वो. १ प्रावश्यिकी क्रिया निकलते हुए की जाती है टी. २-५१); देशयमनकषायक्षयोपशमतारतम्यऔर नषेधिकी पाते हुए की जाती है। जिसने वशतः स्यात् । दर्शनिकाये कादशदशावशो नैष्ठिकः अपनी प्रात्मा को मल और उत्तर गुणों सम्बन्धी सुलेश्यतरः। (सा. घ. ३-१)। २. दृष्ट्यादिदश. अतिचारों से रहित कर लिया है उसके यथार्थतः धर्माणां निष्ठा निर्वहणं मता। तया चरति यः स नषेधिकी क्रिया होती है। अनिषिद्ध के तो केवल स्यान्नैष्ठिकः साधकोत्सुकः।। देशयमध्नकोपादिक्षशब्द मात्र से निषोधिका होती है, न कि परमार्थ योपशमभावतः। श्राद्धो दर्श निकादिस्तु नैष्ठिकः से । मूल व उत्तर गुणों के अनुष्ठानरूप प्रावश्यक स्यात् सुलेश्यकः ।। (धर्मसं. श्रा. ५-६ व १)। में जो यक्त (निरत) है उसे नियम से निषिद्धात्मा १जो निष्ठापूर्वक धर्म का प्राचरण करता है वह जानना चाहिए। प्रथवा यह भी कहा जा सकता है नैष्ठिक श्रावक कहलाता है। उसकी धर्म के विषय कि निषिद्धात्मा ही प्रावश्यक में युक्त होता है। में निर्वाहरूप निष्ठा रहती है, इसी से वह निरतिनैष्ठिक ब्रह्मचारी-१. नैष्ठिकब्रह्मचारिणः सम. चार श्रावकधर्म का परिपालन करता है।। धिगतशिखालक्षितशिरोलिंगा: गणधरसूत्रोपलक्षितो. नैसगिक मिथ्यादर्शन-१. तत्रोपदेशनिरपेक्ष रोलिंगाः,शक्ल-रक्तवसनखण्डकोपीनलक्षितकटीलिंगाः नैसगिकम् । तत्र परोपदेश मन्तरेण मिथ्याकर्मोदयस्नातका (सा. घ. 'स्नातकाः' स्थाने तथा') भिक्षा. वशात् यदाविर्भवति तत्त्वार्थाश्रद्धानलक्षणं तन्नसगिवृत्तयो देवतार्चनपरा भवन्ति । (चा. सा. पृ. २१, कमिति व्यवसीयते । (त. वा. ८, १, ७)। सा. घ. स्वो. टी. ७-१९)। २. स नैष्ठिको ब्रह्म- २. मिथ्याकर्मोदयादाद्य तत्त्वाश्रद्धानलक्षणम् ॥ चारो यस्य प्राणान्तिकमदारकर्म। (नीतिवा. ५, (ह. पु. ५८-१९३) । ३. तत्र नैसर्गिक मिथ्या१०, पृ.४५) । ३. शिखा-यज्ञोपबीताङ्कास्त्यक्तारम्भपरिग्रहः । भिक्षां चरन्ति देवा! कुर्वते कक्षपट्टकम् ॥ परोपदेशनं विनापि समाविर्भवति । (त. वृत्ति श्रुत. धवलारक्तयोरेकतरैकवस्त्रखण्डकम् । घरन्ति ये च ते ८-१)। प्रोक्ता नैष्ठिकब्रह्मचारिणः ॥ (धर्मसं. श्रा. -२२, १ परोपदेश के विना ही मिथ्यात्व कर्म के उदय से २३)। ४. यस्य ब्रह्मचारिणः प्राणान्तिकं मृत्युपर्य- जो तत्त्वों का प्रश्रद्धान प्रकट होता है उसे नैसगिक न्तं कलत्ररहितं क्रियाकाण्डं भवति स नैष्ठिक: मिथ्यादर्शन कहते हैं। प्रोच्यते । xxx तथा च भारद्वाजः-कलत्र- नैसर्गिक सम्यग्दर्शन-देखो निसर्गज सम्यग्दर्शन। हितस्यात्र यस्य कालोऽतिवर्तते । कष्टेन मृत्यु- १. उभयत्र सम्यग्दर्शने अन्तरङ्गो हेतुस्तुल्यो दर्शनपर्यन्तो ब्रह्मचारी स नैष्ठिकः ।। (नीतिवा. टी. मोहस्योपशमः क्षयः क्षयोपशमो वा, तस्मिन सति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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