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________________ निषद्यापरिपहविजय ] शादविचलत: मंत्र-विद्यालक्षणप्रतीकाराननपेक्षमास्य क्षुद्रजन्तुप्रायविषमदेशाश्रयात् काष्ठोपलवन्निश्चलस्यानुभूतमृदुकुथास्तरणादिस्पर्शसुख म विगणयतः प्राणिपीडापरिहारोद्यतस्य ज्ञान-ध्यान-भावनाधीनधियः संकल्पितवीरासनोत्कुटि कासनादिरते रासनदोषजयान्निषद्यातिदिक्षेत्याख्यायते । (त. वा. ६, ६, १५; चा. सा. पृ. ५२ ) । ३. श्मशानादिनिषिद्यासु स्त्रयादिकण्टकवजिते । उपसर्गाननिष्टेष्टानेकोऽभीरस्पृहः क्षमेत् ॥ (श्राव. नि. हरि. वृ. ६१८, पृ. ४०३ ) । ४. निषीदन्त्यस्यामिति निषद्या स्थानं स्त्रीपुरुष पण्डकविवर्जितमिष्टानिष्टोपसर्ग जयिना तत्राद्विग्नेन निषद्यापरिषहजयः कार्यः । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ६ - ६ ) । ५. संकल्पितासनादविचलनं निषद्यातितिक्षा । (त. इलो. ६-६ ) । ६. निषिद्या श्मशा नोद्यानशून्यायतनादिषु वीरासनत्कुटिकाद्यासन जनितपीडा XX X तत्क्षमणं निषद्यापरिषहजयः । (मूला. व. ५, ५७-५८ ) । ७. सर्वाशाशमहान्ध - कारपुरुजाऽऽयामां त्रियामां यमी योग योगमयत्यवा हमभोर्मुहूर्त यथा । क्षेत्रे स्त्रीजन पश्ववद्य रहिते हृद्ये निषद्यास्थितः सन्नत्यु प्रनिशाचराप्रतिहत ध्यानो निषद्याजयी || ( श्राचा. सा. ७-२४) । ८. भीष्मश्मशानादिशिलातलादौ विद्यादिनाऽजन्यगदायुदीर्णम् । शक्तोऽपि भङ्क्तं स्थिरमङ्गिपीडां त्यक्तुं निषद्यासहन: समास्ते । ( झन. ध. ६ - ६८ ) । ६. श्मशानादिस्थितस्य संकल्पितवीरासनाद्यन्यतमासनस्य प्रादुर्भूतोपसर्गस्यापि तत्प्रदेशाविचलतोऽकृत मंत्र-विद्यादिप्रतीकारस्य अनुभूतमृद्वास्तरणादिकमस्मरतश्चित्तविकाररहितस्य निषद्यातितिक्षा | ( धारा. सा. टी. ४० ) । १०. यो मुनिः पितृवन शून्यागार-पर्वतगुहा-गह्वरादिषु पूर्वानभ्यस्तेषु निवास करोति, भास्कर निजेन्द्रियज्ञानोद्योत परीक्षित प्रदेशे क्रियाकाण्डकरणार्थं नियतकालां निषद्यामाश्रयति, तत्र च दूरक्षहर्यंक्षत रक्षु-द्वीपि-गजादिनानाभयानकपाकवशब्दश्रवणादिनापि निर्मयो भवति, देवतिर्यममुष्याचेतनकृतोपसर्गान् यथासम्भवं सहमानोsपि वीरासन कुक्कुटासनादिषु प्रविघटमानशरीरो भवति, मोक्षमार्गान्न प्रच्यवते, मंत्र-विद्यादिप्रतीकारं न करोति, पूर्वोक्तदुष्टश्वापदबाधां च सहते, तस्य मुनेर्निषद्यापरीषहजयो भवति । (त. वृत्ति श्रुत. e-e)। Jain Education International [निषिद्धिका १ श्मशान, उद्यान, सूना घर, पर्वत की गुफा श्रीर गर ( पर्बत का प्रकृत्रिम बिल) आदि अपरिचित स्थानों में रहते हुए जो सूर्य के प्रकाश और इन्द्रियजन्य ज्ञान से परीक्षित स्थान में नियमकृत्य को करता है, नियत समय तक शासन से स्थित रहता है— उससे विचलित नहीं होता है, सिंहादि हिंसक जीवों के भयानक शब्द को सुनता हुआ भी भयभीत नहीं होता, चारों प्रकार के उपसर्ग को सहता हुश्रा मोक्षमार्ग में स्थिर रहता है, तथा वीरासन प्रादि प्रासनविशेष से स्थित होता हुआ शरीर को स्थिर रखता है; ऐसा साधु निषद्यापरीषह का जीतनेवाला होता निषधाचल - १. निषोधन्ति तस्मिन्निति निषधः । यस्मिन् देवा देव्यश्च क्रीडार्थं निषीधन्ति स निषधः । (त. वा. ३, ११, ५) । २. निषीदन्ति तस्मिन्निति निषघो हरि- विदेहयोर्मर्यादाहेतुः । (त. इलो. ३ - ११) । | १ जिसके ऊपर देव देवियां क्रीड़ा के लिये स्थित होते हैं उस पर्वत को निषधाचल कहा जाता है । निषिद्धिका ( श्रुतविशेष) - णिसिहियं बहुविहपायच्छित्तविहाणवष्णणं कुणइ । ( धव. पु. १, पृ. ८); णिसिहियं पायच्छित्तविहाण मण्णं पि श्राचरणविहाणं कालमस्सिदूण परूवेदि । ( धव. पु. ६, पृ. १६१ ) । जिस अंगबाह्य श्रुत में बहुत प्रकार के प्रायश्चित्त के विधान की प्ररूपणा की जाती है उसे निषिद्धका कहते हैं । यह सामायिक व चतुर्विंशति श्रादि श्रंगबाह्य श्रुत के चौदह अर्थाधिकारों में से एक है । निषिद्धिका ( सामाचार विशेष ) - १. कंदरपुलिण-गुहादिसु पवेसकाले णिसिद्धियं कुज्जा । ( मूला. ४ - १३) । २. णिसिही निषेधिका परिपृच्छ्य प्रवेशनम् । (मूला. वृ. ४-४) । ३. जीवानां व्यन्तरादीनां बाधायें यन्निषेवनम् । अस्माभिः स्थीयते युष्मद्दिष्टयैवेति निषिद्धिका ।। (श्राचा. सा. २ - ११) । १ कन्दर ( जल से विदारित स्थान), पुलिन (जल के मध्यगत जलरहित देश ) और गुफा आदि में प्रवेश करते समय व्यन्तरादि से पूछ करके प्रवेश करना; इसका नाम निषिद्धिका या निषेधिका है । यह दस प्रकार के औधिक सामाचार में पांचवां है। ६३२, जैन-लक्षणावली For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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