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________________ निर्याणकथा] भवति तत् निर्माणं द्विप्रकारं जातिनामकर्मोदयापेक्ष ज्ञातव्यम् । स्थाननिर्माणं प्रमाणनिर्माणं चक्षुरादीनां स्थानं संख्यां च निर्मापयति । निर्मीयते श्रनेनेति निर्माणम् । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११) । १ जिस कर्म के निमित्त से परिनिष्पत्ति-जाति नामकर्म की अपेक्षा रखते हुए चक्षुरादि शरीरवयवों के स्थान और प्रमाण की रचना — होती है वह निर्माण नामकर्म कहलाता है । २ जो कर्म जातिविशेष में स्त्री-पुरुषादि के लिंग और आकार का नियामक है उसे निर्माण नामकर्म कहते हैं । ५ जिसके उदय से सब जीवों के जाति के अनुसार अंग और उपांगों का निवेश (स्थापन या रचना ) होता है उसे निर्माण नामकर्म कहा जाता है । अन्य कितने ही श्राचार्य उसे जातिगत लिंग और श्राकार की व्यवस्था का नियामक मानते हैं । निर्धारणकथा - निर्याणं निर्गमः, तत्कथा निर्याणकथा । यथा - वज्जता उज्जम मंदबंदिसद्धं मिलंतसामंतं । संखुद्धसेन्नमुद्धुर्याविधं नयरा निवे नियइ ॥ (स्थाना. अभय वृ. २८२, पृ. २०० ) । राजा आदि के नगर से निकलने की कथा को निर्याणकथा कहा जाता है । निर्यापक - १. छेदेसूवटूवगा सेसा णिज्जावया समणा । ( प्रव. सा. ३- १० ) । २. कप्पाकप्पे कुसला समाधिकरणुज्जदा सुदरहस्सा । गीदत्था भयवंता अदालीसं तु णिज्जवया || ( भ. प्रा. ६४८ ) । ३. निर्यापका आराधकस्य समाधिसहायाः । ( भ. प्रा. विजयो. व मूला. टी. ६६ ) । ४. यः पुनरनन्तरं सविकल्प छेदोपस्थापन संयमप्रतिपादकत्वेन छेदं प्रत्युपस्थापकः स निर्यापकः, योऽपि छिन्नसंयमप्रतिसन्धान विधानप्रतिपादकत्वेन छेदे सत्युपस्थापकः सोऽपि निर्यातक एव । ( प्रव. सार. अमृत. वृ. ३-१० ) । ५. तयोश्छेदयो: (देशसकलछेदयोः) प्रायश्चित्तं दत्त्वा संवेग-वैराग्यजनकपरमागमवचनैः संवरणं कुर्वन्ति ते निर्यापकाः शिक्षागुरवः श्रुतगुरवश्चेति भण्यन्ते । ( प्रव. सा. जय. वृ. ३ - १० ) । १ दीक्षादायक गुरु के सकल दोनों ही प्रकार के का आरोपण करने वाला श्रमण कहलाता है । २ Jain Education International ६२२, जैन- लक्षणावली [[निलञ्छन तथा की - ग्राह्य और ग्राह्य भोजन-पान को - परीक्षा में कुशल होते हैं, समाधि के कराने में - श्राराधक के वित्त के स्वस्थ करने में उद्यत होते जो प्रायश्चित्त ग्रन्थों के रहस्य के साथ सूत्रार्थ के ज्ञाता होते हैं, ऐसे मुनियों को निर्यापक कहते हैं । निर्यापकपरिग्रह - निर्यापकारिग्रहः श्राराधकस्य समाधिसहाय परिवर्गः । ( श्रन. ध. स्वो टी. ७, ६८) । समाधिमरण के लिए उद्यत श्राराधक की समाधि में - सहायक परिवर्ग ( परिजनसमुदाय) को निर्यापकपरिग्रह कहते हैं अतिरिक्त जो देश और छेद ( व्रतभंग) में व्रत होता है वह निर्यापक जो कल्प्य और प्रकल्प्य निर्युक्ति- देखो श्रावश्यक नियुक्ति । १. जुत्ति ति उवायत्ति य निरवयवा होदि णिज्जुत्ति ॥ ( मूला. ७ - १४) । २. णिज्जुत्ता ते प्रत्था जं बद्धा तेण होइ णिज्जुती । तहषि य इच्छावेइ विभासिउं सुत्तपरिवाडी ॥ (श्राव. नि. ८८) । १ नियुक्ति में 'नि' का अर्थ निरवय या सम्पूर्ण तथा 'युक्ति' का अर्थ है उपाय । तदनुसार श्रभोष्ट तत्त्व के उपाय को नियुक्ति जानना चाहिए । २ 'नि' का अर्थ निश्चय या अधिकता है तथा 'युक्त' का अर्थ सम्बद्ध है। तदनुसार जो जीवाजीवादि तत्र सूत्र में निश्चय से या अधिकता से प्रथम ही सम्बद्ध हैं, उन निर्युक्त तत्वों की जिसके द्वारा व्याख्या की जाती है उसे निर्युक्ति कहा जाता है निर्लाञ्छन - १. नासावेघोऽङ्कनं मुष्कछेदनं पृष्ठगालनम् । कर्ण-कम्बलविच्छेदो निर्लाञ्छनमुदीरितम् ॥ ( त्रि.श. पु. च. ६, ३, ३४६; योगशा ३ - १११ ) ; नितरां लाञ्छनमङ्गावयवच्छेद:, तेन कर्म जीविका निर्लाञ्छनाकर्म । (योगशा. स्वो. विव. ३ - १११ ) । २. निर्लाञ्छनं निलञ्छन कर्म वृषभादेर्नासावेघादिना जीविका, निर्लाञ्छनं नितरां लाञ्छनमङ्कावयवच्छेद: ।। (सा. घ. ५-२२) । १ बैल आदि की नासिका का वेधन करना, गाय व घोड़े यादि को दागना-गरम लोहशलाका श्रादि से चिह्नित करना, बैल व घोड़े आदि को बधिया करना, ऊंटों की पीठ का गालना, गाय-बैल के कानों एवं गलकम्बल का विच्छेद करना; इत्यादि को निछनकर्म कहते हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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