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________________ निरन्तरबन्धप्रकृति] ६१६, जैन लक्षणावली [निरालम्बध्यान उत्कृष्ट काल में से कम कर देने पर जो शेष रहे निरंजन-१. जासु ण वण्णु ण गंधु रसु, जासु ण उसका नाम निरन्तर प्रयक्रमणकालविशेष है। सदु ण फासु । जासु ण जम्मणु मरणु गवि, ण उ निरन्तरबन्धप्रकृति-जिस्से पथडीए पच्चो णिरजणु तासु ।। जासु ण कोहु ण मोहु मउ, जासु निय मेण सादि-द्धग्रो अतोमहत्तादिकालावदाई साण माय ण माणु । जासूण ठाणु ण भाणु जिय, सो णिरतरबंधपयडी । (प्रव. पु. ८, पृ. १७); जिस्से जि णिरंजणु जाणि ॥ अस्थि ण पुष्णु ण पाउ जसु, बंधकालो जहण्णो वि अतोमहत्तमेत्तो सा णिरंतर- सो जि णिरंजण भाउ ॥ (परमा. १९-२१)। बंधपयडी । (धव. पु. ८, पृ. १००)। २. जस्स ण कोहो माणो माया लोहो य सल्ल-लेजिस प्रकृति का प्रत्यय (कारण) नियम से सादि स्साम्रो । जाइ जरा मरणं विय णिरंजणो सो अहं अध्रुव होकर अन्तर्मुहूर्त काल तक रहने वाला है भणियो । णस्थि कला संठाणं मग्गण-गुणठाण वह निरन्तरबन्धप्रकृति कहलाती है। अथवा जिसके जीवठाणाई। ण य लद्धि-वंघठाणा णोदयठाणाइया बन्ध का काल जघन्य भी अन्तर्मुहूर्त मात्र होता है केई ॥ फास-रस-रूव-गंधा सहादीया य जस्स स्थि उसे निरन्तरवन्धप्रकृति जानना चाहिए। पुणो । सुद्धो चेयणभावो णिरंजणो सो अहं भणिनिरन्तरवेदककाल-बद्धसमयादो मावलियादि- ओ।। (तत्त्वसा. १९-२१)। कंतो समयपबद्धो णियमेण प्रोकड्डिदूण वेदिज्जदि। १जिसके वर्ण, गन्ध, रस, शब्द, स्पर्श, जन्म, मरण, तदो उवरि णिरंतरं पलिदोबमस्स असंखेज्जदिभाग- क्रोध, मोह, मद, माया, मान, स्थान, ध्यान, पुण्य. मेतकालं णिय मेण वेदिज्जदि, एसो णिरंतरवेदग- पाप, हर्ष और विषाद नहीं हैं तथा एक भी दोष कालो काम ।। (धव. पु. १०, पृ. १४२-४३)। नहीं है, ऐसे परम शुद्ध प्रात्मस्वभाव को निरंजन बन्ध के समय से लेकर एक प्रावली के बीतने पर कहते हैं। समयप्रबद्ध का वेदन नियम से अपकर्षणपूर्वक निराकार उपयोग-देखो अनाकारोपयोग होता है, तत्पश्चात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग १. अनाकारं दर्शनम्। (स. सि. २-९त. वा. मात्र काल तक उसका वेदन नियम से निरन्तर २,९,१)। २. निराकारो दर्शनोपयोगः सामान्य. होता है। इसी का नाम निरन्तरवेदककाल है। विषयत्वात् । (त. श्लो. २-६) । ३. सामान्यार्थानिरपेक्षत्व-अनेकान्तनिराकृते: निरपेक्षत्वम् । वभासो यो हृषीकावधिमानसः । उपयोगो निरा. (लघीय. स्वो. वि. ७२) । कारः स शेयोऽन्तर्मुहुर्तगः ॥ (पचर्स. अमित. अनेकान्त का निराकरण करने से-विरोधी धर्म ३३४, पु. ४६) । को अपेक्षा न करने के कारण-नय में निरपेक्षता १प्राकार से रहित-सामान्यविषयक-उपयोगको होती है और इसी से वह मिथ्या माना जाता है। निराकार या दर्शन कहा जाता है। निरर्थक-१.वर्णक्रमनिर्देशवत निरर्थकमारादेसा- निराकांक्षा-१. तथा निर्गता कांक्षा प्रन्यान्यदिवत्, पार पात् एस इत्येते प्रादेशाः, एतेष वर्णा- दर्शनग्रहणरूपा यस्यासौ निराकांक्षः। (सूत्रकृ. सू. नां क्रमनिदर्शन मात्र विद्यते, न पूनरभिधेयतया शी.व. २, ७,६६, प.६१)। २. निराकांक्षत्वं कश्चिदर्थः प्रतीयते इत्येवं भूतं निरर्थकममिधीयते, हि प्रतिपतृधर्मः वाक्येष्वध्यारोप्यते, न पुनः शब्दडिस्थादिबद्वा (प्राव. नि हरि. व.८८१,प. ३७५)। धर्मः, तस्याचेतनत्वात् । (न्यायकु. ६५, पृ. ७३८)। २. वर्णक्रमनिर्देशवत् निरर्थकम् पारादेसादिवत् १ विभिन्न दर्शनों के ग्रहणरूप प्राकक्षिा से जो डिस्था दिवद्वा। (प्राव. मलय. व.८८१, पृ. ४८३) रहित हो चुका है ऐसे सम्यग्दृष्टि को निराकक्ष जो शब्द वर्णों के क्रम से युक्त हो, पर अर्थ उसका कहा जाता है। २ वाक्य में जो निराकरिता मानी कुछ भी न हो, वह निरर्थक कहलाता है। जैसे गई है वह वस्तुतः प्रतिपत्ता (ज्ञाता) का इमं है, पारादेस् ----पार प्रात् और एस; ये तीन मादेश शम्द का नहीं। हैं । इनमें वर्णक्रम तो है, पर अर्थ कुछ भी नहीं है। निरालम्ब ध्यान-धारणा यत्र काचिम्न न मत्र. इसी प्रकार डित्थ-डवित्थ आदि शब्दों को निरर्थक पदचिन्सनम् । मन:स रुपनं नास्ति तद ध्यानं जानना चाहिए। यह ३२ सत्रदोषों में तीसरा है। गलम्बनम् ॥ प्रात्मानमात्मनात्मानं निरुध्यात्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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