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________________ नामाजीव] ६००, जैन-लक्षणावली [नारक जस्स णाम कीरदि फासेत्ति सो सम्वो णामफासो च नामावश्यकम्, पावश्यकाभिधानमित्यर्थः। (अनु. णाम । (षट्खं. ५, ३, ६-पु. १३, पृ.८)। यो. हरि. व. प.६)। एक जीव व एक अजीव आदि पाठ में से जिसका एक जीव, एक अजीव, बहुत जीव, बहुत अजीव, 'स्पर्श' ऐसा नाम किया जाता है उसे नामस्पर्श दोनों एक-एक तथा दोनों बहत-बहत; इनमें से कहते हैं। जिसका 'मावश्यक' ऐसा नाम किया जाता है उसे नामाजीव-अजीव इति नाम यस्य चेतनस्या- नामावश्यक कहते हैं। चेतनस्य वा क्रियते स नामाजीवः । (त. भा सिद्ध. नामासंख्यात-णामास खेज्जयं णाम जीवाजीबघ. १-५)। मिस्ससरूवेण विदअभंगासंखेजाण कारणणिरवे. जिस चेतन व अचेतन पदार्थ का 'अजीव' ऐसा क्वा सण्णा । (धव. पु. ३, पृ. १२३)। नाम किया जाता है उसे नामग्रजीव कहते हैं। जीव, अजीव और मिश्ररूप से स्थित पाठ संयोगी नामानन्त-णामाणंतं जीवाजीव मिस्सदध्वस्स भंगों में जिसको 'असंख्यात' ऐसी संज्ञा की जाती कारणणिरवेक्खा सण्णा प्रणंता इदि। (धव. पु. ३, है उसे नामासंख्यात कहते हैं। नामानव-नामास्रवो यस्य प्रास्रव इति नाम कृतं जीव, अजीव और मिश्र द्रव्य की जो कारण की स नामास्रवः । (त. भा. सिद्ध.व. १-५)। अपेक्षा बिना 'अनन्त' ऐसी संज्ञा की जाती है उसे जिसका 'प्रास्त्रव' ऐसा नाम किया गया है उसे नामानन्त कहते हैं। नामात्रब कहते हैं। ग-१. नामस्स जोडणुप्रोगो अहवा नामोत्तर-तत्र नामोत्तरमिति नामैव, यस्य वा जस्साभिहाणमणुप्रोगो। नामेण व जो जोग्गो जोगो जीवादेउत्तरमिति नाम क्रियते । (उत्तरा. नि. शा. णामाणुपोगो सो ।। (विशेषा. १३६६) । २. नामा- व. १. पु. ३) । नुयोगो यस्य जीवादेरनुयोग इति नाम क्रियते, 'उत्तर' इस नाम को ही नामोत्तर कहा जाता है। नाम्नो वा अनुयोगो नामानुयोगो नामव्याख्या, यदि अथवा जिस किसी जीवादि का 'उत्तर' ऐसा नाम वा नाम्नाऽनुरूपो योगो नामानुयोगः। (प्राव. नि. किया जाता है उसे नामोत्तर कहते हैं । मलय. वृ. १२६)। नामोपक्रम-तत्र नामतश्चिरतरकालभाविनः सन्नि१ नाम का जो अनुयोग है उसे नामानुयोग (नाम. हितकाल एव करणं नामोपक्रमः । (उत्तरा. नि. व्याख्या) कहते हैं । अथवा जिसका 'अनुयोग' ऐसा शा. व. १-२८, पृ. ३१) । नाम है उसे नामानयोग कहा जाता है। नाम के चिरतर काल में होने वाले कार्य के निकटवर्ती काल अनुरूप योग भी नामानुयोग कहलाता है। में करने को नामोपक्रम कहते हैं। नामान्तर-णामंत रसद्दो बज्झत्ये मोत्तूण अप्पा- नारक- देखो नरत । १. नरकेषु भवा नारकाः । णम्हि पयट्टो। (धव. पु. ५, पृ. १-२)। (त. भा. ३-३; त. वा. २,५०, ३) । २. ण रबाह्य अर्थ को छोड़कर अपने आप में प्रवत्त 'अन्तर' मंति जदो णिच्च दवे खेत्ते य काल-भावे य । शब्द को नामअन्तर कहते हैं । अण्णोणेहि य णिच्चं तम्हा ते णारया भणिया ।। नामाल्पबहुत्व -अप्पाबहुप्रसद्दो णामप्पाबहुअं । (प्रा. पंचसं. १-६०; धव. पु. १, पृ. २०२ उद्.; (धव. पृ.५, पृ. २४१) । गो. जी. १४७)। ३. नरान् कायन्तीति नरकास्तेषु 'प्रल्पबहत्व' इस शब्द को नामप्रल्पबहत्व कहा। भवा नारकाः। (प्राव. नि. हरि. व. ६२८, प. जाता है। २५१)। ४. नरान् कायन्तीति नरकाः, योग्यतया नामावश्यक-१. से कि तं नामावस्सयं? २ शब्दयन्तीत्यर्थः, तेषु भवा नारकाः। (नन्दी. हरि. जस्स णं जीवस्स वा अजीवस्स वा जीवाणं वा व. पृ. २६) । ५ नारका: शर्करासन्निविष्टोष्ट्रिताअजीवाणं वा तदुभयस्स वा तदुभयाणं वा प्रावस्स- कृतयः, तेषु भवा: अतिप्रकृष्ट दुःखोपेता: प्राणिनो एत्ति नाम कज्जइ से तं नामावस्सयं। (अनुयो. सू. नारकाः। (त. भा. सिद्ध. वृ. १-२२)। ६. न ६)। २. तत्र नाम अभिधानम्, नाम च तदावश्यकं रमन्ते महादुःखा ये द्रव्यादिचतुष्टये। ये परस्परतो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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