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________________ नियं नपुंसकद] ५८७, जैन-लक्षणावली नपुंसकवेव और अशुभ नामकर्म के उदय से जो न जीव जो स्तुति और सिर झुकाने रूप अपने वचन स्त्री होते हैं और न पुरुष भी, वे नपुंसक कहे जाते और काय की क्रिया को करता है, इसे नमस्कार हैं। xxx जिसके उदय से जीव नपुंसक के कहा जाता है। भावों को प्राप्त होता है उसे नपुंसकवेद (नोकषाय- नमस्कृतिमुद्रा-संलग्नौ दक्षिणाङ्गुष्ठाक्रान्तवाभेद) कहते हैं । ९ जिसके उदय से स्त्री और पुरुष माङ्गुष्ठपाणोति नमस्कृतिमुद्रा। (निर्वाणक. १६. के ऊपर नगर के महादाह के समान राग उत्पन्न ६, ७, पृ. ३३) । होता है उसे नपुंसकवेद जानना चाहिए। दाहिने अंगूठे से प्राक्रान्त वायें अंगूठे से युक्त संलग्न नपुंसकवेद-देखो नपुंसक । दोनों हाथों की जो अवस्था होती है, इसे नमस्कृतिनभ-देखो माकाश । भायणं सव्वदव्वाणं नहं मुद्रा कहते हैं। प्रोगाहलक्खणं ।। (उत्तरा. २८-६)। नमस्यन-देखो नमस्कार । जो सब द्रव्यों का भाजन (प्राधार) है व जिसका नमि-परीषहोपसर्गादिनामनाद नमिः, तथा गर्मस्थे अवकाश देना स्वभाव है उसे नभ (आकाश) भगवति परचक्रनृपैरपि प्रणतिः कृतेति नमिः । कहते हैं। (योगशा. हेम. पृ. ३-१४२)। नभोनिमित्त-रवि-ससि-गहपहदीणं उदयत्थमणा. परीसह व उपसर्ग प्रादि के नमाने के कारण तथा दिमाइ दण। खीणत्तं दुक्ख-सूहं जं जाणइ तं हि शत्रु राजाओं के द्वारा भी नमस्कार किये जाने के णहणिमित्तं ॥ (ति. प. ४-१००३) ।। कारण इक्कीसवें तीर्थकर 'नमि' कहलाये। सूर्य, चन्द्र और ग्रह आदि के उदय और अस्तमन नय-१. गुणोऽपरो मुख्य नियामहेतुर्नयःxxxi आदि को देखकर क्षीणता और सुख-दुःखादि के स्वयम्भू. ५२); नयास्तव स्यात्पदसत्यलाञ्छिता जान लेने को नभोनिमित्त कहते हैं। रसोपविद्धा इव लोहधातवः। (स्वयम्भू. ६५)। नभोयान-नभसि गगने हेममयाम्भोजोपरि यानं २. सधर्मणैव साध्यस्य साधादविरोधतः । स्याद्वानभोयानम् । (प्रा. मी. वृ. १)। दप्रविभक्तार्थविशेषव्यंजको नयः । (प्रा. मी. आकाश में सुवर्णमय कमल के ऊपर गमन करने को १०६) । ३. वस्तुन्यनेकान्तात्मनि अविरोधेन नभोयान कहते हैं। हेत्वर्पणात् साध्यविशेषस्य याथात्म्यप्रापणप्रवणप्रनम-नम इति नैपातिकं पदं द्रव्य-भावसंकोचार्थम, योगो नयः । (स. सि. १-३३)। ४. नयाः प्रापकाः आह च-नेवाइयं पयं दव्व-भावसंकोयणपयत्थो। कारकाः साधका निर्वतका निर्भासका उपलम्भका नमः-कर-चरण-मस्तकसुप्रणिधान रूपो नमस्कारो व्यञ्जका इत्यनन्तरम् । जीवादीन पदार्थान भवत्वित्यर्थः । (जम्बुद्वी. शा. व. १, पृ. १०)। नयन्ति प्राप्नुवन्ति कारयन्ति साधयन्ति निर्वतयन्ति 'नम' यह निपात से निष्पन्न पद है, इसका अर्थ है निर्भासयन्ति उपलम्मयन्ति व्यञ्जयन्तीति नयाः। द्रव्य और भाव का संकोच । अभिप्राय यह है कि (त. भा. १-३५, पृ. १२०-२१)। ५. नायम्मि हाथ, पैर और मस्तक को सावधानता को या गिहियब्वे अगिहिरव्वम्मि चेव प्रत्थम्मि। जइ. उनके शभ व्यापार को नम (नमस्कार) कहा अव्वमेव इह जो उवएसो सो णो नाम ॥ (माव. जाता है। नि. १०६६ दशवै. नि. १४६)। ६. णी प्रापणे, नमस्कार-१. पंचहिं मुट्ठीहिं जिणिदचलणे सुनि- तस्य नय इति रूपम्, वक्तव सूत्रार्थप्रापणे गम्ये वदणं णमंसणं । (धव. पु.८, पृ. १२)। २. अर्ह- परोपयोगान्नयति नयः, नीयते चानेन अस्मिन वेति दादिगुणानुरागवतः आत्मनो वाक्कायक्रियास्तवन- नयनं वा नयः, वस्तुनः पर्यायाणां संभवतोऽधिगमनशिरोवनतिरूपो नमस्कार (भ. मा. विजयो. मित्यर्थः। (उत्तरा. चू. पृ.९); नयाः कारका ७५३) । दीपकाः व्यञ्जका भावका: उपलम्भका इत्यर्थः, १ पांच मुट्ठियों (अंगों) से जिनेन्द्र के चरणों में विविधः प्रकारेरर्थविशेषान् स्वेन स्वेनाभिप्रायेण पड़ने का नाम नमसन (नमस्यन) या नमस्कार है। नयन्तीति नयाः। (उत्तरा.च. पृ. ४७) । ७. एक. २ अरहंत प्रादि के गणों में अनुराग रखने वाला देशविशिष्टोऽर्थो नयस्य विषयो मतः। (न्यायाव. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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