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________________ दोण] ५६५, जैन-लक्षणावली द्वापरयुग्मद्वापरयुग्म वचन को हिल जानना चाहिए। यह ३२ सूत्र- द्वापरयुग्म-देखो बादरयुग्म । इयमत्र भावनादोषों में छठा सूत्रदोष है। केचिद्विवक्षिताः राशयश्चत्वारः स्थाप्यन्ते, तेषां द्रोण-१. चतुराढक द्रोणः। (त. वा. ३, ३८, चतुभिर्भागो ह्रियते, भागे च हृते xxx द्वी ३, पृ. २०६) । २. चतुर्भिराढकोणो xxx शेषौ स द्वापरयुग्मः, यथा चतुर्दश । (पंचसं. मलय. (गणितसा. १-३७)। ब. अनु. ५८, पृ. ५०)। १चार प्राढक प्रमाण माप को द्रोण कहते हैं। जिस राशि में चार का भाग देने पर दो शेष रहते द्रोणपथ-देखो द्रोणमुख । द्रोणपथं जल स्थल हैं उसे द्वापरयुग्म कहते हैं। जैसे-१४:४३, पथोपेतम् । जलपथयुक्तं स्थलपथयुक्तं वा रत्नभू शेष २)। मिः इत्यन्ये । (प्रश्नव्या. अभय.व. पृ. १७५)। द्वापरयुग्मकल्योज-जे णं रासी चउक्कएणं प्रवजो नगर जलमार्ग और स्थलमार्ग दोनों से संयक्त हारेणं अबहीरमाणे एगपज्जवसिए जे णं तस्स होता है उसे द्रोणपथ कहते हैं। दूसरे किन्हीं का रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा, से तं दावरकहना है कि जलमार्ग अथवा स्थलमार्ग से युक्त जुम्मकलिगोगे। (भगवती ४, ३५, १, २, पृ. रत्नमूमि को द्रोणपथ कहा जाता है। द्रोणमुख-देखो द्रोणपथ । १. दोणामुहाभिधाणं जिस राशि में चार का भाग दिये जाने पर एक सरिव इवेलाए वेढियं जाण । (ति.प.४-१४००)। शेष रहे और उस राशि के जो प्रवहारसमय २. समुद्र-निम्नगासमीपस्थमवतरम्नौनिवहं द्रोणमुखं द्वापरयुग्म होते हैं उसे द्वापरयुग्मकल्योज कहते हैं । नाम । (धव. पु. १३, पृ. ३३५)। ३. द्रोणमुखं द्वापरयुग्मकृतयुग्म-जे णं रासी चउक्कएणं अवजलपथ-स्थलपथोपेतम् । (प्रोपपा. अभय. व. ३२, हारेण प्रवहीरमाणे चउपज्जवसिए जे णं तस्स पृ.७४)। रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा, से तं दावर१ समुद्र की बेला से वेष्टित पुर को द्रोणमुख कहा जुम्मकडजुम्मे । (भगवती ४, ३५, १, २, पृ. जाता है । २ समुद्र पौर नदी के समीपवर्ती स्थान । ३३६)। को, जहाँ नौकाएं उतरती हैं, द्रोणमुख कहते हैं। जिस राशि में चार का भाग दिये जाने पर दो ३ जलमार्ग और स्थलमार्ग से युक्त स्थान को शष रहे और उस राशि के जो प्रवहारसमय द्रोणमुख कहते हैं। द्वापरयुग्म होते हैं उसे द्वापरयुग्मकृतयुग्म कहते हैं । द्वन्द्वसमास-१. तयोरितरेतरयोगलक्षणो द्वन्दः। द्वापरयुग्मध्योज-जे णं रासी चउक्कएणं अवतयोरितरेतरयोगलक्षणो द्वन्द्वो वेदितव्यः-द्रव्याणि हारेण प्रवहीरमाणे तिपज्जवसिए जे णं तस्स च पर्यायाश्च द्रव्य-पर्याया इति । (त. वा. १, २६, रासिस्स प्रवहारसमया दावरजुम्मा से तं दावर५) । २. उभयप्रधानो द्वन्द्वः । (अनुयो. हरि. व. जुम्मतेप्रोगे । (भगवती ४, ३५, १, २, पृ. ३३६) । पृ.७३)। जिस राशि में चार का भाग दिये जाने पर तीन १ दो पदों के मध्य में जो परस्पर सम्बन्धरूप शेष रहें और उस राशि के जो प्रवहारसमय समास होता है उसका नाम समान हैं प्रकृत में द्वापरयुग्म होते हैं उसे द्वापरयुग्मन्योज कहते हैं। द्रव्य क्षौर पर्याष इन दो शब्दों में द्वन्द्वसमास को द्वापरयुग्मद्वापरयुग्म-जे णं रासी चउक्कएणं सूचना की गई है। २ जिस समास में दोनों पद अवहारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए जे णं तस्स प्रधान होते हैं उसे द्वन्द्वसमात कहते हैं। रासिस्स अवहारसमया दावरजुम्मा से तं दावरद्वापर-देखो द्वापरयुग्म । चतुर्विभक्ते द्विशेषो जुम्मदावरजुम्मे । (भगवती ४, ३५, १, २, पृ. द्वापरसंज्ञः। (पञ्चसं. स्वो. कृ. ब. क. ५८, पृ. जिस राशि में चार का भाग दिये जाने पर दो जिस राशि में चार का भाग देने पर दो शेष रहते शेष रहें और उस राशि के प्रवहारसमय द्वापरउसे वापर कहते है। मुग्म होते हैं उसे द्वापरयुग्मद्वापरयुग्म कहते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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