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________________ द्रव्यलेश्या] ५५६, जैन-लक्षणावली [द्रव्यव्युत्सर्ग द्रव्यलेश्या-१. द्रव्यलेश्या पुद्गलविपाकिकर्मो- द्रव्यविचिकित्सा - उच्चार-प्रश्रवणादिषु मूत्रदयापादिता। (त. वा. २, ६, ८); शरीरनामो- पुरीषादिदर्शने विचिकित्सा द्रव्यगता। (मूला. व. दयापादिता द्रव्यलेश्या। (त. वा. ६, ७, ११)। ५-५५) । २. वण्णोदयेण जणिदो सरीरवण्णो दु दव्वदो मल-मूत्रादि को देखकर जो ग्लानि होती है उसे लेस्सा। (गो. जी. ४६४); वण्णोदयसंपादिद. सरीरवण्णो दु दव्वदो लेस्सा । (गो. जी. ५३६)। द्रव्यविवेक-xxx विवेक द्रव्यतो बहिः३. द्रव्यलेश्या कृष्णादिद्रव्याण्येव । (स्थाना. अभय. सङ्गपरित्यागरूपं xxx (उत्तरा. सू. शा. व. व. १-५१) । ४. वर्णनामकर्मोदयजनितशरीरवर्ण- ४-१०, पृ. २२५) । स्तु द्रव्यलेश्या। (गो. जी. जी. प्र. टी. ४६४)। बाहिरी परिग्रह के त्यागरूप विवेक को द्रव्यविवेक १ पुदगलविपाकी वर्ण नामकर्म के उदय से जो कहते हैं। लेश्या-शरीरगत वर्ण-होता है उसे द्रव्यलेश्या द्रव्यविशेष-१. तपःस्वाध्यायपरिवृद्धिहेतुत्वादिकहते हैं। २ वर्ण नामकर्म के उदय से जो शरीर द्रव्यविशेषः। (स. सि.७-३९; त. इलो. ७-३६)। का वर्ण होता है उसे द्रव्यलेश्या कहा जाता है। २. द्रव्यविशेषोऽन्नादीनामेव सार-जाति-गुणोत्कर्ष३ कृष्ण, नील व पीतादि द्रव्यों को ही द्रव्यलेश्या योग: । (त. भा. ७-३४)। ३. तप:स्वाध्यायकहते हैं। परिवृद्धि हेतुत्वादिद्रव्यविशेषः । दीयमानेऽन्नादौ द्रव्यलोक-१. जीवाजीवं रूवारूवं सपदेसमपदेसं प्रतिगृहीतुस्तपःस्वाध्यायपरिणामविवृद्धि कारणत्वादि. च । दव्वलोगं वियाणाहि अणंतजिणदेसिदं ।। द्रव्यविशेष: इति भाष्यते । (त. वा. ७,३९, (मला. ७-४७) । २. जीवमजीवे रूवमरूवी सप्प. ३)। ४. दीयमानेऽन्नादौ प्रतिगृहीतस्तपःस्वाध्यायएसमप्पएसे य । जाणाहि दव्वलोगं निच्चमनिच्च च परिवृद्धिकरणत्वाद् द्रव्यविशेषः । (चा. सा. पृ.१५)। जं दव्वं । (प्राव. भा. १९७)। ३. द्रव्यलोको १ साधु के लिए दिये जाने वाले अन्न प्रादि में जीवाजीवद्रव्यरूपः । (स्थामा. अभय. वृ. १-५)। उसे ग्रहण करने वाले साधु के तप व स्वाध्याय १ जीव, अजीव (काल, प्रकाश, धर्म, अधर्म व प्रादिविषयक वृद्धि की कारणता का होना, यह पुदगल); रूपी (पुदगल), प्ररूपी (काल, प्राकाश, द्रव्यगत विशेषता है। २ अन्न आदि के गन्धधर्म, अधर्म और जीव); सप्रदेशी जीव प्रादि तथा रसादिविशिष्टतारूप सार; शालि, ब्रीहि व गेहूं प्रप्रदेशी कालाणु व परमाणु इस सबका नाम द्रव्य- प्रादि जाति, और स्निग्ध-मधुरता रूप गुण; इनकी लोक है। उत्कर्षता के सम्बन्ध को द्रव्यविशेष कहा जाता है। द्रव्यवर्गरणा-तत्र द्रव्यतः एकप्रदेशिकानां याव- द्रव्यविहङ्गम-धारेइ तं तु दव्वं तं दव्वविहङ्गम दनन्त प्रदेशिकानाम् । (प्राव. नि. हरि. व. ३९, वियाणाहि । (दशव. नि. ११७)। विहंगम नाम पक्षी का है। जो पक्षी पर्याय के हेतुएकप्रदेशी से लेकर अनन्तप्रदेशी तक पुद्गलों की भूत कर्मपुद्गलरूप द्रव्य को धारण करता है उसे वर्गणाओं को द्रव्यवर्गणा कहा जाता है। द्रव्यविहंगम कहते हैं। अभिप्राय यह है कि जो द्रव्यवाक्-१. तत्सामोपेतेन क्रियावतात्मना पक्षी अवस्था के कारणभूत कर्म को बांधकर प्रेर्यमाणाः पृगला वाक्त्वेन विपरिणमन्त इति द्रव्यवागपि पौद्गलिकी। (त. वा. ५-१६)। है उसे द्रव्यभ्रमर समझना चाहिए। २. द्रव्यवाक् ज्ञशरीर भव्यशरीरव्यतिरिक्ता शब्द- द्रव्यवेद-देखो द्रव्यलिंग । नामकर्मोदयोत्पम्नो परिणामयोग्याः जीवपरिगृहीता। (प्राव. सू. मलय. द्रव्यवेदोऽपि च त्रिधा। (पंचसं.अमित.१-१८) बृ. १, पृ. ५५७)। नामकर्म के उदय से शरीर में मो योनि-लिंगादि १ भाववाक्य गत सामर्थ्य से सहित क्रियावान प्रात्मा उत्पन्न होते हैं, यह द्रव्यवेद कहलाता है। के द्वारा प्रेरित होकर बचनरूप से परिणत होने द्रज्यव्युत्सर्ग-द्रव्यव्युत्सर्गो-गणोपधि-शरीरान्नबाले प्रगलों को न्यबाक कहा जाता है। पानादिव्युत्सर्गः, अपना उन्मन्युत्सर्गो नाम मार्तध्या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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