SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 248
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्रव्यपर्याय ] ५५०, ज्झिताः पुनश्चापि पुनर्नीत्वा पुनस्तथा । एवं समुदितः सर्वो द्रव्यसंसार उच्यते ॥ ( जम्बू. च. १३, २७-३०) । १ प्राणी एक शरीर को ग्रहण करता है, पश्चात् उसे छोड़ अन्य को ग्रहण करता है, फिर उसे भी छोड़ अन्य को ग्रहण करता है। इस प्रकार नरहट की घटिकाओं के समान उत्तरोत्तर पूर्व शरीर को छोड़कर अन्य अन्य शरीर को ग्रहण करता हुआ संसार में जो परिभ्रमण करता है, इसका नाम द्रव्यपरिवर्तन है । ६ इधर उधर परिभ्रमण का नाम संसार है। संसार शब्द के अर्थ का ज्ञाता होकर जो तद्विषयक उपयोग से रहित होता है उसे द्रव्यसंसार कहते हैं, प्रथवा जीव व पुद्गल द्रव्यों का जो यथायोग्य परिभ्रमण होता है उसे द्रव्यसंसार जानना चाहिए। इसे द्रव्यपरिवर्तन भी कहा जाता है । जैन - लक्षणावली द्रव्यपर्याय - श्रनेकद्रव्यात्मिकाया ऐक्यप्रतिपत्तनिबन्धकारणभूतो द्रव्पर्यायः श्रनेकद्रव्यात्मिकैकयानवत् । (पंचा. का. जय. वृ. १६) । अनेक द्रव्यस्वरूप एक यान (नौका श्रादि) के समान अनेक द्रव्यस्वरूप एकताप्रतिपत्ति ( प्रभेदज्ञान ) की कारणभूत पर्याय को द्रव्यपर्याय कहते हैं । वह अचेतन परमाणुत्रों के स्कन्धरूप सजातीय और भवान्तर्गत जीव की शरीरनोकर्मपुद्गल के साथ मनुष्यादि पर्यायस्वरूप असमान जातीय के भेद से दो प्रकार की है । द्रव्यपर्यायार्थिकनगम - १. द्रव्यार्थिकनय विषयं पर्यायार्थिकयविषयं च प्रतिपन्नः द्रव्य-पर्यायार्थिकनैगमः । ( जयध. १, पृ. २४५ ) । २. द्रव्य-पर्यायाfrernaयविषयः नैगमोद्वंदज: । ( धव. पु. ६, पृ. १८१) । जो द्रव्याथिक श्रीर पर्यायार्थिक दोनों ही नयों के विषय को ग्रहण करता है उसे द्रव्यपर्यायार्थिक नैगमनय कहते हैं । द्रव्यपाप - १. पुद्गलस्य कर्तृनि (अन. 'कर्तु नि') श्चयकर्मतामापन्नोऽविशिष्ट प्रकृतित्वपरिणामो जीवा - शुभपरिणामनिमित्तो द्रव्यपापम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. १३२; धन. ध. स्वो टी. २-४०) । २. तन्निमित्तेन ( भावपापनिमित्तेन) क्रसद्वेद्याद्य Jain Education International [द्रव्यपुद्गलपरावर्त शुभप्रकृतिरूपः पुद्गल पिण्डो द्रव्यपापम् । (पंचा. का. जय. वृ. १०८ ) । जीव के अशुभ परिणाम के निमित्त से जो पुद्गल का विशिष्ट प्रकृतित्वरूप - ज्ञानावरणादि स्वभावरूप - परिणमन होता है उसे द्रव्यपाप कहते हैं । पुद्गल के इस परिणमन का कारण स्वयं पुद्गल है, परन्तु अज्ञानी जीव अपने को उसका कर्ता मान उसमें कर्मता का निश्चय करता है । द्रव्यपापात्रव - तन्निमित्तो ( भावपापास्रवनिमितो) शुभकर्मपरिणामो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानां द्रव्यपापास्रवः । (पंचा. का. अमृत. वृ. १३६) । भावपापात्रव के निमित्त से योगरूप द्वार से प्रविष्ट होते हुए पुद्गलों का जो अशुभ कर्मरूप परिणमन होता है उसे द्रव्यपापात्रव कहते हैं । द्रव्यपुण्य - १. पुद्गलस्य कर्तृ निश्चयकर्मतामापन्नो विशिष्ट प्रकृतित्वपरिणामो जीवशुभपरिणामनिमित्तो द्रव्यपुण्यम् । (पंचा. का. अमृत. वृ. १३२ ) । २. भावपुण्यनिमित्तेनोत्पन्नः सद्वेद्यादिशुभप्रकृतिरूपः पुद्गल परमाणुपिण्डो द्रव्यपुण्यम् । (पंचा. का. जय. वृ. १०८ ) । ३. यावता ( येन कारणेन ) पुद्गलस्य कर्तुर्निश्चयकर्मतामापन्नो विशिष्टप्रकृतित्वपरिणामो जीवशुभपरिणामनिमित्तो द्रव्यपुण्यम् । (न. घ. स्वो. टी. २-४० ) । जीव के शुभ परिणामों के निमित्त से जो पुद्गल का विशिष्ट प्रकृतिरूप परिणमन होता है उसे द्रव्यपुण्य कहते हैं । पुद्गल के इस परिणमन का कारण स्वयं पुद्गल ही है, पर अज्ञानी जीव अपने को उसका कर्ता मान उसमें कर्मता का निश्चय करता है । द्रव्यपुण्यास्रव - तन्निमित्त: ( भावपुण्यास्रवनिमित्तः) शुभकर्मपरिणामो योगद्वारेण प्रविशतां पुद्गलानां द्रव्यपुण्यास्रव: । (पंचा. का. अमृत. वू. १३५) । योगरूप द्वार से प्रविष्ट होते हुए पुद्गलों का जो भावपुण्यास्रव के निमित्त से शुभ कर्मरूप परिणमन होता है उसे द्रव्यपुण्यात्रव कहते हैं । द्रव्यपुद्गलपरावर्त - श्रोराल- विउब्वा-तेय कम्म भासाणपाण मणएहि ॥ फासेवि सव्वपोग्गलमुक्का ग्रह वायर परट्टो । श्रहव इमो दव्वाई श्रोरालविउब्व-तेय-कम्मेहिं । नीसेसदव्वगहणंमि बायरो - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy