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________________ देशनिर्जरा] ५३७, जैन-लक्षणावली [देशविधिकथा नाप्राप्तिः चिरातीतकाले उपदेशितपदार्थधारणलाभो वधि-मनःपर्ययं च यज्ज्ञानम् । देशं नोइन्द्रिय-मनवा स देशनालब्धिः । (ल. सा. जी. प्र. ६)। उत्थात् प्रत्यक्षमितरनिरपेक्षात् ॥ (पंचाध्या. १, १ देशना से परिणत-उसमें व्यापूत-प्राचार्य ६६९)। प्रादि की उपलब्धि तथा उपदेशित तत्व के ग्रहण, अवधि और मनःपर्यय ज्ञान जो क्षायोपशमिक हैं दे धारण एवं चिन्तन की शक्ति के समागम को ईषत् इन्द्रियरूप मन के मालम्बन से उत्पन्न होने के देशनालब्धि कहते हैं। कारण देशप्रत्यक्ष कहलाते हैं। प्रकृत देशप्रत्यक्ष देश निर्जरा-संसारे संसरंतस्स खोवसमगदस्स अप्रतिपाती होने से अविनश्वर और प्रतिपाती होने कम्मस्स । सव्वस्स वि होदि जगे xxx॥ से विनश्चर भी है। मूला. ८-५५)। देशप्रत्यासत्तिकृत संयोगसम्बन्ध - देसपच्चाचतुर्गतिमय संसार में परिभ्रमण करने वाले सवं सत्तिको णाम दोण्हं दव्वाणमवयवफासं काऊण संसारी जीवों के क्षयोपशम को प्राप्त हुए कर्म की जमच्छणं सो देसपच्चासत्तिको संजोगो। (घव. पु. जो निर्जरा होती है उसे देशनिर्जरा कहते हैं और १४, पृ. २७)। वह सभी संसारी जीवों के होती है। वो द्रव्य परस्पर अवयवों का स्पर्श करके जो स्थित देशनेपथ्यकथा-देशे मगधादौ xxx नेपथ्यं रहते हैं, इसे देशप्रत्यासत्तिकृत संयोग कहा जाता है। स्त्री-पुरुषाणां वेषः स्वभाविको घिभूषाप्रत्ययश्चेति । देशयति-पंच य अणुव्वदाई सत्त य सिक्खाउ स्थाना. अभय. वृ. ४,२, २८२)। देसजदिधम्मो । सब्वेण य देसेण य तेण जुदे होदि मगधाविदेश में स्त्री-पुरुषों की स्वाभाविक वेशभूषा देसजदी। (भ. प्रा. २०६७)। को चर्चा करने को देशनेपथ्यकथा कहते हैं। पांच अणुव्रतों और सात शिक्षाव्रतों को देशयतिधर्म देशपरिक्षेपी नैगम-देशो विशेषः परमाण्वादि- कहा जाता है। इससे जो पूर्णतया अथवा एकदेशगतस्तं परिक्षेप्तुं शीलमस्येति देशपरिक्षेपी, विशेष रूप से युक्त होता है उसे देशयति कहते हैं। ग्राहीत्यर्थः । (त. भा. सिद्ध.व.१-३५)। देशविकल्पकथा-देशे मगधादौxxxविकल्पः देश से अभिप्राय परमाणु माविगत विशेष का है, -सस्यनिष्पत्तिः व-कूपादि-देवकुल-भवनादिविउसे ग्रहण करने वाले विशेषनाही नैगमनय को शेषश्चेति, तत्कथा। (स्थाना. अभय. वृ. ४, २, देशपरिक्षेपी नेगमनय कहते हैं। २८२)। देशपावस्थ-१. सेज्जायरकुलनिस्सिय ठवणकुल- विकल्प का अर्थ धान्य की उत्पत्ति व कोट, कुप्रां, पलोयणाभिहडे य । पुब्धि पच्छा संथव निइअग्गपिंड- देवगृह और भवन प्रादि की विशेषता है। उनकी भोइपासत्थो। (व्यव. भा.३-२३०, पृ. १११)। मगधादि देशविशेष की अपेक्षा चर्चा करना, यह २. नित्यपिण्डमग्रपिण्डं च यो भक्ते स देशतः देशविकल्पकथा कहलाती है। पार्श्वस्थः । (व्यव. भा. मलय. वृ. ३-२३०)। देशविचिकित्सा-तत्थ देसवितिगिच्छा सोहणं २ नित्यपिण्ड और अग्रपिण्ड के खाने वाले साप को साहणं जह पण जीवाउलो न लोगो दिलो होतो तो देशपावस्थ कहते हैं। सुटठ्यरं होन्तंति एवमाइ देसवितिगिच्छा भण्णइ । देशप्रकृतिविपरिणामना-जासि पयडीणं देसो (वशवं. चू. २, पृ. ९५)। णिज्जरिज्जदि अघटिदिगलणाए सा देशपयडिवि- साधनों को यदि जीवों से व्याप्त लोक न दिखता परिणामणा णाम । (षव. पु.१५, पृ. २५३)। तो बहुत अच्छा होता, इस प्रकार के विचार करने प्रध:स्थितिगलन से जो प्रकृतियों का एक देश को देशविचिकित्सा कहते हैं। निर्जीर्ण होता है उसका नाम देशप्रकृतिविपरिणा- देशविधिकथा-देशे मगषादी विधिः-विरचना मना है। भोजन-मणिभूमिकादीनाम्, भुज्यते बा यद्यत्र प्रथमदेशप्रत्यक्ष-क्षायोपशमिकमपरं देशप्रत्यक्षमक्षयं तयेति देशविधिः, तत्कथा देशविधिकथा। (स्थाना. क्षयि च ॥ (पंचाध्या. ६६७); देशप्रत्यक्षमिहाप्य- अभय.व. २, ४, २८२)। स. ६८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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