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________________ देशक ] नामवघृतपरिमाणानां प्रदेशो देश: । (त. वा. ७, २१, ३) । ५. नानाव्रीहि कोद्रव कगु-गोधूमादिनिष्पत्तिभाग्देशः । ( श्रा. प्र. टी. ३२५ )। ६. X X X तस्स य श्रद्धं च बुच्चदे देसो । ( भावसं. दे. ३०४)। ७. भर्तुर्दण्ड-कोशवृद्धि च दिशति ददातीति देश: । ( नीतिवा. १६ - २, पृ. १६१) । ८ सयलं मुणेहि खंध अद्धं देशोXXX। ( वसु श्रा. १७) । ६. प्रतो हीनाणुतो यावदर्द्ध देश: × × ×। ( श्राचा. सा. ३ - १६ ) 1 १ स्कन्ध के श्राधे भाग को देश कहते हैं । २ देशव्रत में ग्रामादि के श्राश्रय से जितने प्रदेश का नियम किया जाता है वह प्रदेश देश कहलाता है । ३ तीसरे और चौथे श्रादि भाग को देश कहा जाता है । ४ किसी अवयवविशेष से जिसका निर्देश किया जाता है उसका नाम देश है। जैसे- श्रणुव्रत में हिंसादि से देशत: निवृत्ति । ५ ब्रीहि, कोदों, कांगनी और गेहूं प्रादि अनेक धान्यों की उत्पत्ति के स्थान को देश (खेत ) कहते हैं । ७ राजा के सैन्य और कोश की वृद्धि को जो देता है वह देश कहलाता है । देशक- संसार ज्वरसंतापच्छेदि यद्वचनामृतम् । पीयते भव्यलोकेन प्रीत्या नित्यं स देशक: 11 ( श्राचा. सा. २-३४) । जिसका वचनरूप प्रमृत (उपदेश ) संसाररूप ज्वर के सन्ताप को नष्ट करता उसे देशक - उपाध्याय - कहा जाता है । देशकथा - तथा देशकथा – यथा दक्षिणापथः प्रचुरान्नपानः स्त्रीसंभोगप्रघानः पूर्वदेशो विचित्रवस्त्र गुड-खण्ड शालि मद्यादिप्रधानः, उत्तरापथे शूगः पुरुषाः जविनो वाजिनो गोधूमप्रधानानि धान्यानि सुलभं कुंकुमं मधुराणि द्राक्षा-दाडिम कपित्थादीनि पश्चिमदेशे सुखस्पर्शाणि च वस्त्राणि सुलभा इक्षवः शीतं वारीत्येवमादिः । (योगशा. स्वो विव. ३-७९) । विभिन्न देशों की— उनमें उत्पन्न होने वाले धन धान्यादि को — कथा करने को देशकथा कहते हैं । जैसे- दक्षिण देश बहुत श्रन्न-पान से परिपूर्ण है; पूर्व देश में अनेक प्रकारके वस्त्र, गुड़, खांड, चावल, एवं मदिरा श्रादि पदार्थ प्रचुरता से उपलब्ध होते हैं; उत्तर देश में पुरुष शूरवीर, घोड़े वेगशाली, Jain Education International [देशकांक्षा गेहूं प्रादि प्रमुख धान्य, सुलभ केसर और मीठे अंगूर व अनार आदि होते हैं; तथा पश्चिम देश में सुखप्रद स्पर्शवाले वस्त्र और सुलभ गन्ने आदि पाये जाते हैं; इत्यादि । देशकरगोपशमना - १. पगइ ठिई प्रणुभागप्पएसमूलुत्तराहिपविभत्ता । देशकरणोवसमणा तीए समियस श्रपयं । ( कर्मप्र. उपश. ६६ ) । २. दंसणमोहणीये उवसामिदे उदयादिकरणेसु काणि वि करणाणि उवसंताणि, काणि वि करणाणि श्रणुवसंताणि, तेणेसा देसकरणोवसामणा त्ति भण्णदे । ( कसायपा. टि. २, पृ. ७०७) । ३. देसकरणोपसमणा भण्णति, पगइ ठिति प्रणुभाग-पदेसाणमज्भवसाणविसेसेणं थोवं उवसामिज्जति ण सव्वं; तम्हा देसकरणोपसमणा वुच्चति । ( कर्मप्र. चू. उपश. ६६) । ४. देशत: करणाभ्यां यथाप्रवृत्तापूर्वकरणसंज्ञाभ्यां कृत्वा प्रकृत्यादीनामुपशमना देशकरणोपशमना । इदमुक्तं भवति -- यथाप्रवृत्तकरणापूर्व करणाभ्यां यत् प्रकृत्यादिकं देशतः उपशमयति, न सर्वात्मना, सा देशकरणोपशमना । ( कर्मप्र. मलय. वू. उपश. ६६) । २ दर्शनमोहनीय का उपशम कर देने पर उदयादि करणों में कुछ करणों का तो उपशम हो जाता है और कुछ कारणों का उपशम नहीं भी होता है, इसी से उसे देशकरणोपशामना कहा जाता है । ४ श्रध्यवसानविशेष से अधःकरण और पूर्वकरण परिणामों के द्वारा जो प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश का अल्प मात्रा में उपशम किया जाता है उसे देशकरणोपशमना कहते हैं । देशकाल - देश: प्रस्तावोऽवसरो विभागः पर्याय इत्यनर्थान्तरम्, तस्य कालो देशकालः, अभीष्टवस्त्ववाप्त्यवसरकाल इति भावः । ( श्राव. मलय. वृ. ६६० ) । देश, प्रस्ताव, अवसर, विभाग और पर्याय ये समानार्थक शब्द हैं । इस प्रकार के देश का जो काल है उसे देशकाल अर्थात् श्रभीष्ट वस्तु की प्राप्ति का श्रवसरकाल कहा जाता है । देशकांक्षा - १ तस्स देशकंखा जहा कोई एगं कुतित्थियमतं कखइ, ण सेसाणि मताणि, एसा देशकंखा । ( दशवं. चू. पू. ६५) । २. देशविषया एकमेव सौगतं दर्शनमाकांक्षति चित्तजयोऽत्र प्रतिपादितो. ५३५, जैन- लक्षणावली For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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