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________________ देवगतिनाम ] जितरागादिदोषस्त्रलोक्यपूजितः । यथास्थितार्थवादी च देवोऽर्हन् परमेश्वरः ।। (योगशा. २ - ४ ) । १ 'दीव्यते स्तूयते इति देव:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिसकी स्तुति भक्ति से परिपूर्ण देवेन्द्रादि के द्वारा की जाती है तथा जो क्लेश, कर्म, विपाक और प्राशय से रहित होता है ऐसे प्राप्त को देव कहा जाता है । देवगतिनाम - १. प्रणिमाद्यष्टगुणावष्टम्भबलेन दीव्यन्ति क्रीडन्तीति देवाः । देवानां गतिः देवगतिः । अथवा देवगतिनामकर्मोदयोऽणिमादिदेवामिघानप्रत्ययव्यवहारनिबन्धन पर्यायोत्पादको देवगतिः । देवगतिनामकर्मोदयजनितपर्यायो वा देवगतिः, कार्ये कारणोपचामारात् । ( धव. पु. १, पृ. २०३ ) ; जस्स कम्मस्स उदएण देवभावो जीवाणं होदि तं कम्मं देवदित्ति उच्चदि । (धव. पु. ६, पृ. ६७); देवभावणिव्वत्तयं कम्मं देवगदिणामं । ( धव. पु. १३, पृ. ३६३) । २. यदुदयाज्जीवो देवभावस्तद् देवगतिनाम । (त. वृत्ति श्रुत. ८-११) । साहा ॥ ( जं. दी. प. ५,२५-२६) । १ अणिमा महिमा आदि आठ गुणों के जो कीड़ा किया करते हैं उन देवों की देवगति कहते हैं । देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी - १. यदा छिन्नायुर्मनुष्यस्तिर्यग्वा पूर्वेण शरीरेण वियुज्यते तदैव देवभावं प्रत्यभिमुखस्य तस्य पूर्वशरीरसंस्थानानिवृत्तिकारणं विग्रहगतावुदेति तद् देवगतिप्रायोग्यानुपूव्यं नाम । (त. वा. ८, ११, ११) । २. जस्स कम्मस्स उदएण देवगईं गयस्स जीवस्स विग्गहगईए बट्टमाणस्स देवगइपाओग्गसं ठाणं होदि तं देवगदिपाश्रोग्गाणुपुव्वीणामं । ( धव. पु. ६, पृ. ७६ ) । १ वसति के भीतर गर्भगृह में जो देवच्छन्द होता है वह दो योजन ऊंचा, एक योजन विस्तृत श्रोर चार योजन लम्बा होता है । 'लोकविनिश्चयकर्ता' के मतानुसार वह सोलह योजन ऊंचा और उससे प्रा ( ८ यो . ) विस्तार वाला समचतुष्कोण हुग्रा करता है । २ जिनालय के मध्य में सोलह योजन लम्बे और इससे प्राधे (प्राठ म्राठ योजन) विस्तार व ऊंचाई से सहित देवच्छन्द हुना करते हैं । (यह देवच्छन्द का विस्तारादि उत्कृष्ट जिनभवनों का है । मध्यम व जघन्य जिनभवनों के देवच्छन्द का विस्तारादि यथायोग्य उससे होन समझना चाहिए।) देवदेव - एदेहि बाहिरेहि य प्रब्भरतगुणगणे हि संजुत्तो । सो होदि देवदेवो जो मुक्को कम्मकलुसादो ॥ ( जं. दी. प. १३ - १३० ) । १ मनुष्य या तिथंच जीव विवक्षित प्रायु के समाप्त हो जाने से जब पूर्व शरीर से रहित होकर देव भव के श्रभिमुख होता है तब उसके विग्रहगति में पूर्व शरीर गत आकार के अविनाश के कारणभूत जिस कर्म का उदय रहता है उसे देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य कहा जाता है । २ जिस कर्म के उदय से देवगति को प्राप्त हुए जीव का विग्रहगति में देवगति प्रायोग्य प्रकार होता है उसे देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी कहते हैं । जो इन प्रातिहार्यादिरूप बाह्य गुणों से तथा श्रनन्तचतुष्टयादिरूप अभ्यन्तर गुणों से युक्त धौर कर्मकालिमा से रहित हो उसे देवदेव कहा जाता है । देवभाव - देवर्गादिणामकम्मोदएण अणिमादिगुणं णीदो देवभावो होदि । ( धव. पु. १४, पृ. ११ ) । देवगति नाम कर्मके उदय से अणिमा श्रादि गुणों को प्राप्त होना, इसका नाम देवभाव (देवत्व ) है । देवमूढता - १. ईसर- बंभा-विण्हू-अज्जा-खंदादिया य जे देवा । ते देवभावहीणा देवत्तणभावणे मूढो ॥ (मूला. ५-६३ ) । २. वरोपलिप्सयाशावान् रागद्वेषमलीमसाः । देवता यदुपासीत देवतामृढमुच्यते ॥ देवगतिप्रायोग्यानुपूर्व्य- देखो देवगतिप्रायोग्या- ( रत्नक. १ - २३ ) । ३. क्षुधाद्यष्टादशदोषरहितनुपूर्वी । मनन्तज्ञानाद्यनन्तगुणसहिते वीतरागसर्वज्ञतास्वरूप Jain Education International [देवमूढता रत्नमया देवच्छन्द - १. वसहीए गब्भगिहे देवच्छंदो दुजोयच्छे हो । इगिजोयण वित्थारो चउजोयणदीहसंजुत्तो ॥ सोलसको सुच्छेहं समचउरस्सं तदद्भवित्थारं । लोयविणिच्छयकत्ता देवच्छंद परूवेइ ॥ (ति. प. ४, १८६५-६६ ) । २. श्रर्हदायतनमध्यदेश निवेशिनः षोडशयोजनायाम-तदर्घ विष्कम्भोच्छ्राया देवच्छन्दाः ।। (त. वा. ३, १०, १३, पृ. १७८ ) । ३. देवच्छंदो हेमो दुग-ग्रड- चउवासदीहुदश्रो | (त्रि. सा. ९८४) । ४. फलिहमणिभित्तिणिवहा णाणामणि रयणजालपरियरिया || वेरुलियखं भपउरा वसंत || दिव्वामोदसुगंधा देवळंदे त्ति णामदो णेया । वरगन्मघरा दिट्ठा पइण्णकुसुमच्च ५३३, जैन-लक्षणावली प्राश्रय से गति को For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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