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________________ कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्याथिक] ३२५, जैन-लक्षणावलो [कलहवा जो मात्र वचनादिक्रिया की कारण हैं उन वचन, कार करता है उसे कर्मोपाधिसापेक्ष अशुद्ध पर्यायापाणि, पाद, पायु और उपस्थ को कर्मेन्द्रिय कहा थिकनय कहा जाता है । जाता है। कर्वट-१.xxx गिरिवेढिदं च कव्वडयं ॥ कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्ध द्रव्याथिक- १. कम्माणं (ति. प. ४-१३९८) । २. पर्वतावरुद्धं कव्वडं मझगयं जीवं जो गहइ सिद्धसंकासं । भण्णइ सो णाम । (धव. पु. १३, पृ. ३३५)। ३. कव्वडणासद्धणो खतु कम्मोवाहिणिरवेक्खो।। (ल. न.च. माणितटा धरणीधरपरिरा मित्रा। १८; ब. न. च. १९१) । २. कर्मोपाधिनिरपेक्षः दी. प. ७-५०)। ४. कर्वट कुनगरम् । (प्रश्नव्या. शद्धद्रव्याथिको यथा संसारी जीवः सिद्धसदकशद्धा- अभय. व. १७५: प्रौषपा. अभय. व. ३२, प.७४)। त्मा। (पालापप. पृ. १५८)। १ पर्वत से वेष्टित ग्राम को कर्वट कहा जाता है । २ जो द्रव्याथिक नय संसारी जीव को कर्मरूप ४ कृत्सित नगर का नाम कर्वट है। उपाधि से रहित सिद्धसमान शुद्ध ग्रहण करता है कर्वटकथा-कटं सर्वत्र पर्वतेन वेष्टितो देशः, वह कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्धद्रव्याथिक नय कह __कथात्र सम्बध्यते कर्वटकथा। (मला.व.६-८६)। लाता है। जो देश सब ओर पर्वत से घिरा हुआ हो उसे कर्वट कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्ध पर्यायाथिक--१. देहीणं और उससे सम्बद्ध कथा को कवटकथा कहा पज्जाया सुद्धा सिद्धाण भणइ सारित्था। जो इह जाता है। अणिच्च सुद्धो पज्जयगाही हवे स णो ॥ (ल. न. कर्ष (कंस)-१. अर्धतृतीयघरणानि सुवर्णः, स च च. ३१; बृ. न. च. २०४) । २. कर्मोपाधिनिर कंसः । (त. वा. ३, ३८, ५)। २. अड्ढाइज्जा पेक्षस्वभावो नित्यशद्धपर्यायाथिको यथा-सिद्ध धरणा य सुवण्णो सो य पुण करिसो।। (ज्योतिष्क. पर्यायसदृशाः शुद्धाः संसारिणां पर्यायाः । (पालापप. १-१८)। ३. अर्धतृतीयानि धरणान्येकः सुवर्णः, स पृ. १५९)। एव चैकः सुवर्णः कर्ष इत्युच्यते । (ज्योतिष्क. मलय. २ जो पर्यायाथिक नय संसारी जीवों की अवस्थाओं वृ. १-१८)। को मिद्ध अवस्था के समान स्वीकार करता है उसे अढ़ाई धरण (मापविशेष) प्रमाण एक सुवर्ण होता कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्ध पर्यायाथिक नय कहते हैं। है। इसको कर्ष भी कहा जाता है। कर्मोपाधिसापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक-१. भावेसु . __ कर्षक- xxx कर्षकः कर्षणात्तथा । (पाच. राययादी सव्वे जीवंमि जो दु जपेदि। सो हु । ६-२०६)। असुद्धो उत्तो कम्माणोवाहिसावेक्खो ।। (ल. न. च. जो खेत को जोतता व बोता है वह कर्षक (कृषक) २१, ब. न. च. १६४)। २. कर्मोपाधिसापेक्षोऽशद्धद्रव्याथिको यथा-क्रोधादिकर्मजभाव प्रात्मा। __ कहलाता है। (पालापप. प. १५८)। कलह-परसन्तापजननं कलहः । (धव. पु. १२, १जो जीव में कर्मजनित राग-द्वेषादि भावों को पृ. २८५) । बतलाता है उसे कर्मोपाधिसापेक्ष प्रशद्ध द्रव्याथिक- दूसरों को सन्ताप उत्पन्न करने का नाम कलह है। नय कहते हैं। कलहप्राभूत-कलहणिमित्तगद्दह-जर-खेटयादिदम्ब कर्मोपाधिसापेक्ष अशुद्ध पर्यायाथिकनय-१. मुवयारेण कलहो । तस्स विसज्जणं कलहपाहुडं । भणइ अणिच्चा सुद्धा चउग इजीवाण पज्जया जो (जयध. पु. १, पृ. ३२५)। हु। होइ विभाव अणिच्चो असुद्धग्रो पज्जयात्थ- कलह के कारणभूत गधा, जीर्ण वस्तु और खेट णमो ।। (ल. न. च. ३२, बु. न. च. २०५)। (विष) प्रादि द्रव्यों को उपचार से कलह और २. कर्मोपाधिसापेक्षस्वभावोऽनित्याशुद्धपर्यायाथिको उसके विसर्जन (भेजने) को कलहप्राभूत कहा यथा-संसारिणामुत्पत्ति-मरणे स्तः । (पालापप. जाता है। पृ. १५६)। कलहवाक्-परोप्परविरोहहेदुकलवाया। (अंग२ जो संसारी जीवों की उत्पत्ति व मरण को स्वी- प. २६२)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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