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________________ दूतदोष] ५२८, जैन-लक्षणावली [दूरश्रवणत्व १ जिसके उदय से सुस्वर के विपरीत-गधा व दूर-अर्थ- १. दूराः देशविप्रकृष्टाः। (प्रा. मी. ऊंट प्रादि के समान - अमनोज्ञ स्वर उत्पन्न होता है वसु. वृ. ५) । २: दूरार्था भाविनोऽतीता रामउसे दुःस्वरनाम कहते हैं। रावणचक्रिणः । (लाटीसं. ४-८)। दूतदोष-देखो दूतीपिण्ड । १. जल-थल-प्रायास- १ देश की अपेक्षा दूरवर्ती पदार्थों को दूर अर्थ कहा गदं सय-परगामे सदेस परदेसे। संबंधिबयणणयणं जाता है। दूदीदोसो हवदि एसो ॥ (मूला. ६-२६) । दूरघ्रारणत्व-घाणिदिय-सुदणाणावरणाणं वीरि. २. ग्रामान्नगरान्तराच्च देशादन्यदेशतो वा सम्बन्धि- यंतरायाए । उक्कस्सक्ख उवसमे उदिदंगोवंगणामनां वार्ताममिधायोतादिता दूतकर्मोत्पादिता। (भ. कम्मम्मि ।। घाणुक्कस्सखिदीदो वाहिं संखेज्जजोप्रा. विजयो. २३०, कातिके. टी. ४४८-४६)। यणगदाणि । बहुविहगंधाणि तं घादयदि दूर३. स्वग्रामात परग्रामं गच्छति जले नावा तथा घाणत्तं ।। (ति. प. ४, १०९१-६२)।। स्वदेशात् परदेशं गच्छति जले नावा, तत्र तस्य घ्राणेन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय गच्छतः कश्चिद गृहस्थ एवमाह-भट्टारक मदीयं कर्म के उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म सन्देशं गृहीत्वा गच्छ। स साधुस्तत्सम्बन्धिनो वचनं का उदय होने पर घ्राणेन्द्रिय के उत्कृष्ट विषयनीत्वा निवेदयति यस्मै प्रहितम् । स परग्रामस्थः क्षेत्र से बाहिर संख्यात योजनगत अनेक प्रकार के परदेशस्थश्च तद्वचनं श्रुत्वा तुष्टः सन् दानादिकं गन्ध के सूंघने की जो शक्ति प्राप्त होती है उसे ददाति । तद्दानादिकं यदि साधुहाति तदा तस्य दूरघ्राणत्व ऋद्धि कहते हैं । दूत कर्मणोत्पादनं दोषः। (मूला वृ. ६-२६)। दूरदर्शन-रूविदिय-सुदणाणावरणाणं वीरियंतरा४. XXX दूतता मता। दूरबन्धुजनानां वाग्नयः याए । उक्कस्सक्खउवसमे उदिदंगोवंगणामकम्मनानयनक्रिया । (प्राचा. सा. ८-३७) । ५. दूतो-म्मि ।। रू उक्कस्सखिदीदो बाहिं संखेज्जजोयणठिदाई। ऽशनादेरादानं संदेशनयनादिना । तोषिताद्दातुः जं बहुविहदवाई देवखइ तं दूरदरिसिणं णाम ।। xxx ॥ (अन. घ. ५-२१)। ६. ग्रामास्तरा- (ति. प. ४, ६६६-६७)। देलेशं संदेशं वाशं(?) वा संपाद्योत्पादिता दूतकम- चक्षुरिन्द्रियावरण, श्रुतज्ञानावरण और वीर्यान्तराय दुष्यः । (भ. प्रा. मूला. २३०) । ७. दूरबन्धुजना- के उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म का नां वचनानां नयनमानयनं च दूतत्वम् । (भावप्रा. उदय होने पर चक्षुरिन्द्रिय के उत्कृष्ट विषयक्षेत्र से टी. ७६) । बाहिर संख्यात योजनों में स्थित बहुत प्रकार के १ जल, स्थल अथवा प्राकाश का प्राश्रय लेकर पदार्थों के देखने की जो शक्ति प्राप्त होती है उसे अपने ग्राम से अन्य ग्राम को या अपने देश से अन्य दूरदर्शन ऋद्धि कहते हैं। देश को जाते हुए यदि किसी सम्बन्धी के सन्देश को दूरश्रवणत्व-सोदिदिय-सूदणाणावरणाणं वीरिले जाता है तथा उससे सन्तुष्ट होकर अन्य ग्रामस्थ । यंतरायाए। उक्कस्सक्ख उवसमे उदिदंगोवंगणामया देशस्थ मनुष्य यदि उसे दान देता है तो उस कम्मम्मि । सोदुक्कस्सखिदीग्रो बाहिरसंखेज्जजोयणदान के ग्रहण करने पर दूत नामक उत्पादनदोष पएसे । चे©ताणं माणुस-तिरियाणं बहुवियप्पाणं ।। होता है। २ ग्राम, नगर अथवा देश प्रादि से अन्य प्रक्खर-अणक्ख रमए बहविहसद्दे विसेससंजुत्ते । ग्राम प्रादि में जाकर व किन्हीं सम्बन्यिों की बात उप्पण्णे प्रायण्णइ ज भणिय दूरसवणत्तं ॥ (ति.प. को कहकर जो वसति प्राप्त की जाती है वह दूत- ४, ६६३-६५) । दोष से दूषित होती है। श्रोत्रेन्द्रियावरण, धुतज्ञानाबरण और वीर्यान्तराय दूतीपिण्ड-तथा कार्यसंघटनाय दौत्यं विधत्ते कर्म का उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अंगोपांग नामकर्म इति दूतोपिण्डः । (प्राचारा. शी. वृ. २, १, २७३, का उदय होने पर श्रोत्रेन्द्रिय के उत्कृष्ट विषयक्षेत्र पृ. ३२०)। से बाहिर संख्यात योजन प्रमाण क्षेत्र में रहने वाले कार्य की सिद्धि के लिए दूत का काम करके मनुष्य और तियंचों के अक्षर-मनक्षरात्मक विविध भोजन प्राप्त करना, इसका नाम दूतीपिण्ड है। प्रकार के शब्दों के उत्पन्न होने पर उनके सुनने का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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