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________________ दायकदोष] ५१६, जन-लक्षणावली [दिक्कुमार के दिलाने को दापना कहा जाता है। द्विपदं पुत्र-कलत्र-दासी-दास-कर्मकर-शुक-सारिकादि, दायकदोष-१. दायकः परिवेषकः, तेनाशुद्धेन चतुष्पदं गवोष्ट्रादि, तेषां यत्परिमाणं तस्य गर्भादीयमानमाहारं यदि गृह्णाति साधुस्तदा तस्य दायक- धानविधापनेनातिक्रमो ऽतिचारो भवति । (ध. बि. नामानशनदोषः। (मला.. ६-४३)। २. मलिनी- मु.व. ३-२७) । गभिणी-लिगिम्यादिनार्या नरेण च । शवादिनापि पुत्र, स्त्री, दासी, दास व सेवक मनुष्य एवं तोता, क्लीवेन दत्तं दायकदोषभाक् ।। (मन. घ.५-३४)। मंना प्रादि पक्षी इन द्विपदों का तथा गाय और ऊंट प्रशुद्ध परोसने वाले के द्वारा दिये जाने वाले माहार प्रादि चतुष्पदों का जो प्रमाण किया गया है उसका को यदि साषु ग्रहण करता है तो वह दायकदोष का गर्भाधान कराकर उल्लंघन करना; यह दासी-दासपात्र होता है। प्रमाणातिकम नाम का परिग्रहपरिमाण अणुव्रत का दायकदोषदुष्टा-१. मृत-जातसूतकयुक्तगृहिजनेन एक अतिचार है। मत्तेन व्याधितेन नपुंसकेन पिशाचगृहीतेन नग्नया दाह-दाहो णाम संकिलेसो । कुदो ? इह-परभववा दीयमाना वसतियकदृष्टा। (भ. मा. विजयो. संतावकारणत्तादो। (घव. पु. ११, पृ. ३३९)। २-३०)। २. मृत-जातसंयुक्तेन मत्तेन नपुंसकेन इस भव प्रौर परभव में सन्तापजनक संक्लेश को पिशाचगृहीतेन नग्नया वा दीयमाना वसति: दायक- दाह कहा जाता है। दुष्टा। (भ. पा. मूला. टी. २-३०)। ३. मृत- दाहस्थिति- दाहो उक्कस्सट्ठिदिपामोग्गसंकिजातसूतकयुक्तगृहिजनेन व्याषितेन गृथिलेन दीय- लेसो, तस्स दाहस्स कारणभूट्ठिदी दाइट्ठिदी माना वसतिर्दायकदुष्टा । (कार्तिके. टी. ४४८.४६, णाम । (धव. पु. ११, पृ. ३४१)।। पृ. ३३८)। उत्कृष्ट स्थिति के योग्य संपलेश का नाम दाह है, १मरण व जन्म के सूतकसे युक्त गहस्थजन, उन्मत्त, उसकी कारणभूत स्थिति को दाहस्थिति कहा रोगी, नपुंसक और पिशाच से पीड़ित जन के द्वारा जाता है। तथा नग्न स्त्री के द्वारा दी जाने वाली वसति दिक-१. ग्राकाशप्रदेशवेणी दिक् । माकाशस्य दायकदोष से दुष्ट कही जाती है। प्रदेशाः परमाणुपरिच्छेदात् प्रविभक्ता श्रेणीकृता दायकशुद्ध-दायकशुद्धं तु यत्र दाता प्रौदार्यादि- दिग्व्यपदेशमर्हन्ति । (त. वा. ७, २१, १)। गुणान्वितः । (विपाक. अभय. वृ. पृ. ६३)। २. आकाशप्रदेशश्रेणी दिक् । (त. श्लो. ७-२१)। दाता के उदारतादि गुणों से युक्त होने पर दान १ परमाणु प्रमाण से विभक्त माकाश के प्रदेशों की दायकशुद्ध माना जाता है। श्रेणी को दिक या दिशा कहते हैं। दारक (परत्)-निजपते रुत्कर्षजनकत्वेन शत्रु- दिक्कुमार - १. जङ्घामपादेष्वधिकप्रतिरूपाः हृदयं दारयति भिनत्तीति दरत् (दारकम्)। (नीति- श्यामा हस्तिचिह्ना दिक्कुमाराः। (त. भा. ४-११) वा. १६-६, पृ. १६१) । २. दिक्कुमारा भूषणनियुक्तगजपचिह्नधारिणः । जो अपने स्वामी का उत्कर्ष बढ़ाकर शत्रुनों के (जीवाजी. मलय. व. ३, १, ११७, पृ. १६१) । हृदय को विदीर्ण किया करता है उसे दारक या ३. दिक्कुमारा जङ्घानपदेष्वत्यन्तरूपाः स्वर्णगौराः। वरत् कहते हैं। (संग्रहणी दे. व. १७, पृ. १३)। ४. दिशन्ति अतिदास-दासो मूल्य क्रीतः । (पा. दि. पृ. ७४)। सर्जयन्ति अवकाशमिति दिशः, दिक्क्रीडायोगादमूल्य देकर खरीदे हुए सेवक को दास कहते हैं। मृतान्धसोऽपि दिशः, दिशः च ते कुमारा: दिक्कुमादासी-दासकर्मरता दासी क्रीता वा स्वीकृता राः। (त. वृत्ति भुत. ४-१०)। सती । (लाटीसं. ६-१०५)।। १जो देव जंघानों पोर पावों के अग्रभाग में प्रषिक दासकर्म करने वाली या क्रीत (खरीदी हुई) स्वीकृत सुन्दर, वर्ण से श्याम और हाथी के चिह्न से युक्त (रखंल) स्त्रीको दासी कहते हैं। होते हैं वे विक्कुमार कहलाते हैं। ४ जो अवकाश दासी-दासप्रमारणातिक्रम-तथा दासीदासप्रमा- देती हैं वे दिशायें कहलाती हैं। दिशामों में क्रीड़ा णातिक्रम इति सर्वद्विपद-चतुष्पदोपलक्षणमेतत् । तत्र करने वाले अमृतभोजियों (देवों) को भी विक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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