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________________ योजत्र्योज] ५०६, जैन-लक्षणावली [दण्ड (मापविशेष) स्स अवहारस मया तेप्रोगे से तं तेप्रोगकडजुम्मे। जो द्रव्य त्वक् और नोत्वक् का स्पर्श करता है वह (भगवती. ३५, १, १)। सब त्वक्स्पर्श कहलाता है। जिस राशि में चार का भाग देने पर चार शेष दक्षत्व-दक्षत्वम् प्राशकारित्वम् । xxx रहें-कुछ भी शेष न रहे-और उसके अपहार दक्खत्तं किरियाणं जं करणमहीणकालंमि ॥ (प्राव. समय योज हों उसे ज्योजकृतयग्म कहते हैं। नि. हरि. वृ. ८४३, पृ. ३४६) । म्योजव्योज-जे णं रासी चउक्कएणं अवहारेणं जिस प्रकार यान व प्रावरण (कवच) प्रादि सामग्री अवहीरमाणे तिपज्जवसिए, जे णं तस्स रासिस्स अव- से यक्त योद्धा जयलक्ष्मी को प्राप्त करता है उसी हारसमया तेश्रोया से तं तेप्रोगतेप्रोगे। (भगवती प्रकार जीवरूप योद्धा यथासम्भव व्रतादिरूप यानादि ३५, १, १)। सामग्री से सुसज्जित होकर कर्मरूप शत्रु पर विजय जिस राशि में चार का भाग देने पर तीन शेष रहें प्राप्त करता हा मोक्ष लक्ष्मी को प्राप्त करता और अपहार समय ज्योज हों उसे योजत्र्योज है। उस सामग्री के अन्तर्गत एक दक्षत्व भी है । कहते हैं। यद्ध में आवश्यक कार्य को शीघ्रता से सम्पन्न योजद्वापरयुग्म-जे णं रासी चउक्कएणं अव- करना, इसका नाम दक्षत्व है । इसी प्रकार कर्महारेणं अवहीरमाणे दुपज्जवसिए, जे णं तस्स रासि- रूप शत्रु पर विजय प्राप्त करने में प्रावश्यक स्स अवहारसमया तेग्रोया से तं तेप्रोगदावरजुम्मे । क्रियानों को ठीक समय पर करने रूप दक्षत्व की (भगवती. ३५, १, १)। भी प्रावश्यकता रहती है। जिस राशि में चार का भाग देने पर दो शेष रहें दक्षिरणत्व-दक्षिणत्वं सरलता। (प्रौपपा. मलय. और उसके अपहार समय त्र्योज हों उसे व्योज- व. १०, पृ. २२; रायप. मलय. वृ. ४, पृ. २७)। द्वापरयुग्म कहते हैं। सरलता को दक्षिणत्व कहते हैं । यह ३५ वचनात्वक् (तय)-तयो णाम रुक्खाणं गच्छाणं कंघाणं तिशयों में छठा है। वा वक्कलं। (घव. पु. १३, पृ. १६)। दण्ड (मापविशेष)- १. बेरिक्कूहि दंडोx वृक्ष, गच्छ और स्कन्ध के बकला को त्वक् (त्वचा) xx। (ति. प. १-१५) । २. दो कुच्छीग्रो कहा जाता है। दंडं घणू जुगे नालिया अक्खे मुसले। (अनुयो. स. त्वक्पानक (तयापारणए)-से किं तं तयापा. १३३, पृ. १५७)। ३. दंडं घj जुगं नालिया य गए ? जण्णं अंबं वा अंबाडगं वा जहा परोगपदे अक्ख मुसलं च चउहत्था । (ज्योतिष्क. २-७६, जाव वोरं बा तिदुरुयं वा तरुणागं वा प्रामगं वा पृ. ४१)। ४. दण्डः किष्कुद्वयं दण्डः धनुर्नाड्या प्रासगंसि प्रावीलेति वा पवीलेति वा ण य पाणियं समा मता: । (ह. पु. ७-४६) । ५. चउरयणि दंड पियइ से तं तयापाणए । (भगवती खं. ३, १५, मणि भवहि । (म. पु. पुष्प. १, पृ. २४)। ६.x २७, पृ. ३८८)। xx वे किवखहि य हवे तहा दंडो। (जं. दी. प. जो प्राम अथवा प्रांवला इस प्रकार प्रयोगपद १३-३३)। ७. दण्डो हि चतुःकरः । (समवा. (प्रज्ञापना १६-२०५, पृ. ३२८) में कहे अनुसार अभय. वृ. ६६, पृ. ६१)। ८. चत्वारो हस्ता दण्डो बेर पर्यन्त तथा तिन्दुरुक (तेंदू) भी, ये चाहे धनुर्वा युगं वा नालिका वा क्षो वा मुसलं वा। तरुण-अधपके-हों या कच्चे हों, उन्हें मुख में (ज्योतिष्क. मलय. व. २.७६, प. ४४)। ६. चतुभिः डालकर थोड़ा चबाने या अधिक चबाने, किन्तु हस्तमपित एको दण्डः1xxx चतुर्भी रत्निभिः पानी न पीने; वह त्वचापानक (त्वचा पानी) कह- दण्डः कथ्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ३-३८)। लाता है। १ दो रिक्कुप्रों (किष्कुओं) का एक दण्ड होता है । त्वकस्पर्श (तयफास)-जं दव्वं तयं वा णोत्तयं २ दो कुक्षियों (कुक्षि२ हाथ) का एक दण्ड होता वा पुसदि सो सव्वो तयफासो णाम । (धव. पु. है। ३ दण्ड, धनुष, युग, नालिका, अक्ष व मसल ये १२, .. १६)! समानार्थक नाम हैं। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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