SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तथाकार ] का तत्सेवी नाम का दसवां दोष है । ७ शिष्य जिस अपराध की श्रालोचना करेगा उसी का सेवन करने वाला जो गुरु है वह तत्सेवी है, उसके समीप आलोचना करने पर चूंकि यह मेरे प्रतिचार के समान है इसलिए वह मुझे कुछ प्रायश्चित्त नहीं देगा या बहुत थोड़ा देगा तथा 'तुमने यह निकृष्ट कार्य किया है' ऐसा कहकर मुझे तिरस्कृत नहीं करेगा, इस विचार से जो प्रालोचना की जाती है यह तत्सेवी नाम का दसवां आलोचनादोष है । तथाकार - १. वायणपडिछण्णाए उवदेसे सुत्त-अत्थकहणाए । भवितह मेदत्ति पुणो पडिच्छणाए तघाकारो ।। (मूला. ४-१३३ ) । २. वायणपडिसुणगाए उवएसे सुत्त श्रत्थकहणाए । वितहमेयंति तहा पडिसुणणाए तहक्कारो ॥ (श्राव. नि. ६८६ ) । ३. तथाकरणं तथाकार:, स च सूत्रप्रश्नगोचरो यथा भवद्भिरुक्तं तथेदमित्येवं स्वरूपः । ( श्राव. नि. हरि. वृ. ६६६, पृ. २५६ ) ; तथाकार इति कोऽर्थ इति ? ग्रह - श्रवितथमेतत् यदाहुर्यूयमिति । ( श्राव. नि. हरि. वृ. ६८६, पृ. २६५ ) । ४. वाचनाप्रतिश्रवणे उपदेशे सूत्रार्थयोजने गुरुणा क्रियमाणे अवितथमेतदिति कृत्वा पुनरपि यच्छ्रवणं तत्तथाकारः । (मूला. वसु. वृ. ४- १३३ ) । ५. तत्त्वाख्यानोपदेशादी नान्यथा भगवद्वचः । तत्तथेत्यादरेणोक्तिस्तथाकाशे गुणाकरः ॥ ( श्राचा. सा. २ - ८ ) | १, २ वाचना के सुनने में, उपदेश के विषय में तथा सूत्र और प्रथं के कथन में 'श्रापका कथन यथार्थ है, इस प्रकार फिर से जो उसका श्रवण किया जाता है, यह तथाकार कहलाता है । तथाकार का अभिप्राय यही है कि जैसा आप तत्त्व का व्याख्यान कर रहे हैं वह यथार्थ है । इस प्रकार का तथाकार उक्त वाचनाप्रतिश्रवण आदि के विषय में करना चाहिये । यह दस प्रकार के समाचार के अन्तर्गत है | ४८२, जैन - लक्षणावली तदानीतादान-देखो चौरार्थादान । तथा तच्छब्देन स्तेन परामर्शः, स्तेनंरानीतमाहृतं कनक- वस्त्रादि, तस्यादानं ग्रहणं मूल्येन मुधिकया वा तदानीतादानम् । स्तेनानीतं हि काणक्रयेण मुघिकया वा प्रच्छन्नं गृह्ण श्चोरो भवति, ततश्चौर्यकरणाद् व्रतभङ्गः, वाणिज्यमेव मया क्रियते न चौरिकेत्यध्यवसायेन व्रतसापेक्षत्वान्न तद्भङ्ग इति भङ्गाभङ्गरू Jain Education International [तदुभय पोऽतिचार: । (योगशा. स्वो विव. ३-६२; पृ. ५५२-५३) । 'तदानीत' में तत् शब्द से चोर को ग्रहण किया गया है, उसके द्वारा लाये गये सुवणं व वस्त्र श्रादि को मूल्य देकर अथवा बिना मूल्य दिये ही लेना, इसका नाम तदानीतादान है । यह अचोर्याणुव्रत का प्रतिचार इसलिये है कि चोरी से लाये गये सुवर्णादि को छिप करके मूल्य से या बिना मूल्य दिये ही ग्रहण करता है, इस प्रकार चोर होने के कारण व्रत को भंग करता है, तथा 'मैं तो व्यापार करता हूं, चोरी नहीं करता' इस प्रकार व्रत की अपेक्षा रखने से व्रत का भंग नहीं भी होता है । तदाहृतादान - देखो तदानीतादान । १. अप्रयुक्तेनाननुमतेन च चौरेणानीतस्य ग्रहणं तदाहृतादानम् । ( स. सि. ७-२७, चा. सा. पृ. ६) । २. स्तेनैराहृतस्य द्रव्यस्य मुधा क्रयेण वा ग्रहणं तदाहृतादानम् । ( त. भा. ७-२२) । ३. चोरानीतग्रहणं तदाहृतादानम् । प्रप्रयुक्तेनाननुमतेन चोरेणानीतस्य ग्रहणं तदाहृतादानं प्रत्येतव्यम् । (त. वा. ७, २७, २ ) । ४. तदाहृतादानमिति तच्छब्देन स्तेनपरामर्शः, तैराहृतम् आनीतं कनक वस्त्रादि, तस्यादानम् - ग्रहणं मूल्येन मुधिकया वा । ( त. भा. सिद्ध. वृ. ७-२२) । ५. तथा तैराहृतस्य कुङ्कुमादिद्रव्यस्यादानं संग्रहः । (घ. वि. मु. वृ. ३-२५) । ६. चौरेण चौराभ्यां चौरैर्वा यद्वस्तु चोरयित्वा श्रानीतं तद्वस्तु यत् मूल्यादिना गृह्णाति तत् तदाहृतादानम् । (त. वृत्ति श्रुत. ७-२७)। ७. अप्रेरितेन केनापि दस्युना स्वयमाहृतम् । गृह्यते धन-धान्यादि तदाहृतादानं स्मृतम् ॥ ( लाटीसं. ६-५० ) । १ अपनी प्रेरणा या सम्मति के बिना चोर के द्वारा लाये हुए द्रव्य के ग्रहण करने को तदाहृतादान कहते हैं । तदुभय- १. [ तदुभय-] संसर्गे सति विशोधनात्तदुभयम् । ( स. सि. ६ - २२; त. इलो. ६ - २२ ) । २. तदुभयसंसर्गे सति शोधनात्तदुभयम् । किंचित् कर्म आलोचनमात्रादेव शुद्ध्यति, अपरं प्रतिक्रमणेण, इतरत् पुनः तदुभयसंसर्गे सति शुद्धिमुपयातीति तदुभयमित्युपदिश्यते । (त. वा. ६, २२, ४) । ३. अभिव्यक्तप्रतीकारं मिथ्या मे दुष्कृतादिभिः । प्रतिक्रान्तिस्तदुभयं संसर्गे सति शोधनात् । (त. सा. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy