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________________ कर्मचेतना] ३२०, जैन-लक्षणावली [कर्मद्रव्यपुद्गलपरिवर्तन नाग्नि से भस्म कर देता है, तब उसके सिद्ध अव- कर्मदलिकनिषेक-देखो कर्मनिषेक । १. पाबास्था उत्पन्न होती है। हूणिया कम्मट्टिती कम्मणिसेगो। (षट्खं. १, ६-६, कर्मचेतना-१. वेदंतो कम्मफलं मये कदं जो दु ६,६, १२, १५ इत्यादि-पु. ६, पृ. १५० आदि)। मुणदि कम्मफलं । सो तं पुणो वि बंधदि वीयं २. अवाधोना कर्मस्थितिः कर्मदलिकनिषेकः। (प्रज्ञादुक्खस्स अट्ठविहं ॥ (समयप्रा. ४०८)। २.xx प. मलय. वृ. २३-२९४, पृ. ४७६)। x एक्को कज्ज तु xxx चेदयदिxxx॥ प्राबाधा या अबाधा काल से रहित कर्मों की स्थिति पंचा. का. ३८)। ३. ज्ञानादन्यत्रेदमहमिति चेतनम् को कर्मनिषेक या कर्मदलिक निषेक कहते हैं। अज्ञानचेतना । सा द्विधा-कर्मचेतना कर्मफलचेतना कर्मद्रव्यपुद्गलपरिवर्तन-१. एकस्मिन् समये च । तत्र ज्ञानादन्यत्रेदमहं करोमीति चेतनं कर्मचे. एकेन जीवेन अष्टविधकर्मभावेन पुदगला ये गृहीताः तना। (समयप्रा. अमृत. व. ४१७); तत्र ज्ञाना- समयाधिकामावलिकामतीत्य द्वितीयादिषु समयेषु दन्यत्रेदमहं करोमीति चेतनं कर्मचेतना । (समयप्रा. निर्जीर्णाः, पूर्वोक्तेनैव क्रमेण त एव तेनैव प्रकारेण अमृत. वृ. ४१८)। ४. कर्मचेतना कोऽर्थः इति तस्य जीवस्य कर्मभावमापद्यन्ते यावत्तावत्कर्मद्रव्यचेत्-मदीयं कर्म मया कृतं कर्मोत्याद्यज्ञानभावेन- परिवर्तनम् । उक्तं च-सव्वे वि पुग्गला खलु ईहापूर्वकमिष्टानिष्टरूपेण निरुपरागशुद्धात्मानु- कमसो भुत्तुझिया य जीवेण । असई अणंतखुत्तो भूतिच्युतस्य मनोवचनकायव्यापारकरणं यत् सा पुग्गलपरियट्टसंसारे॥ (स. सि. २-१०, भ. प्रा. बन्धकारणभूता कर्मचेतना भण्यते । (समयप्रा. जय. विजयो. १७७३; त. वृत्ति श्रुत. २-१०)। २. कर्मवृ. ४१८)। ५. अन्ये तु प्रकृष्टतरमोहमलीमसे- द्रव्यपरिवर्तन मुच्यते-एकस्मिन् समये जीवेनैकेनानापि प्रकृष्टज्ञानावरणमुद्रितानुभावेन चेतकस्वभावेन ष्टविधकर्मभावेन ये पुदगला गृहीताः समयाधिकामनाग्वीर्यान्तरायक्षयोपशमासादितकार्यकारणसाम - मावलिकामतीत्य द्वितीयादिषु समयेषु निर्जीर्णास्ततो ाः सुख-दुःखानुरूपकर्मफलानुभवनसंबलितमपि गृहीतानगृहीतान् मिश्राननन्तवारानतीत्य त एव कार्य मेव प्राधान्येन चेतयन्ते । (पंचा. का. अमृत. व. कर्मस्कन्धास्तेनैव विधिना तस्य जीवस्य कर्मभावमा३८); एक्को कज्जं तु-अथ पुनरेकस्तेनैव चेतक- पद्यन्ते यावत्तावत्कर्मद्रव्यपरिवर्तनमिति । (मूला. व. भावेनोपलब्धसामर्थ्य नेहापूर्वकष्टानिष्टविकल्परूपं कर्म ८-१४)। ३. कर्मपुद्गलपरिवर्तनमुच्यते एकस्मिन् कार्य तु वेदयति अनुभवति । (पंचा. का. ज. व.३८)। समये केनचिज्जीबेन अष्टविधकर्मभावेन ये गृहीताः २ अपने स्वभावभूत ज्ञान को छोड़कर अन्यत्र- समयाधिकामावलिकामतीत्य द्वितीयादिसमयेष निपर में-'मैं करता है इस प्रकार का जो अनभव ीर्णाः पूर्वोक्त क्रमेणव त एव तेनैव प्रकारेण तस्यैव होता है, इसे कर्मचेतना कहते हैं। जीवस्य कर्मभावं प्राप्नुवन्ति तावत्कालं कर्मपुद्गलकर्मजा प्रज्ञा-१. उवदेसेण विणा तवविसेसलाहेण परिवर्तन भवति । शेषसर्वविशेषो नोकर्मपरिवर्तनवत् कम्मजा तुरिमा । (ति. प. ४, १०२१)। २. तव- ज्ञातव्यः । (गो. जी. जी. प्र. ५६०)। च्छरणबलेण गुरूवदेसणिरवेवखेणुप्पण्णपण्णा कम्मजा १ एक जीव ने एक समय में पाठ प्रकार के कर्मणाम, प्रोसहसेवाबलेणुप्पण्णपण्णा वा। (धव. पु. रूप से परिणत जिन पुद्गलों को ग्रहण किया, ६, पृ. ८२)। ३. दुश्चरतपश्चरणबलेन गुरूपदेश- तत्पश्चात् एक समय अधिक प्रावलीकाल के मन्तरेण समुत्पन्ना कर्मजा । (चा. सा. पृ. ६७)। पश्चात् द्वितीयादि समयों में उन्हें निर्जीर्ण कर २ गुरु के उपदेश के बिना तपश्चरण के बल से दिया। पुनः अनन्त वार अग्रहीत और अनन्त वार उत्पन्न होने वाली बद्धि को कर्मजा प्रज्ञा कहते हैं। मिश्र पुदगल परमाणों को ग्रहण किया व छोडा अथवा औषधि सेवन के बल से जो प्रज्ञा उत्पन्न तथा मध्य में गृहीत पुद्गलों को अनन्त वार ग्रहण होती है उसे कर्मजा प्रज्ञा कहते हैं । किया व छोड़ा। इस प्रकार गृहीत, अगृहीत और कर्मठ-xxx कर्मठः कर्मशूरः कर्माणि घटते। मिश्र परमाणुओं को अनन्तवार ग्रहण करने के (योगशा. स्वो. विव. १-५५) । पश्चात् निर्जीर्ण कर देने पर उसी जीव के जब वे जो कार्य करने में शूर हो उसे कर्मठ कहते हैं। ही कर्मपुद्गल पूर्वोक्त प्रकार से कर्मरूपता को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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