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________________ जिह्वेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहावरणीय] ४६३, जैन- लक्षणावली [जीव के प्राप्त हुए उक्त द्रव्यों के विषय में बकुल वृक्ष पत्ते के आकार में स्थित जिह्वा इन्द्रिय के द्वारा जो रस का ज्ञान उत्पन्न होता है, वह जिह्वा इन्द्रियव्यञ्जनावग्रह कहलाता है । जिह्वेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहावररणीय - तस्स (जिभिदियवंजणोग्गहस्स) जमावारयं कम्मं तं जिम्भिदिवंजणोवग्गहावरणीयं । (धव. पु. १३, पृ. २२५)। प्रविष्ट होकर अंग-अंगिभावगत सम्बन्ध को जिह्वेन्द्रियेहाज्ञान - जिब्भिदिएण रसमादाय कि मुत्तो किममुत्तो कि दुस्सहाओ किमदुस्सहाओ कि जच्चतरमावण्णो त्ति विचारपच्चयो जिभिदिय गदहा । ( धव. पु. १३, पृ. २३१) । जिह्वन्द्रिय के द्वारा रस को ग्रहण करके क्या वह मूर्त है या अमूर्त, क्या दु:स्वभाव है या प्रदु:स्वभाव है अथवा क्या जात्यन्तर अवस्था को प्राप्त है; इस प्रकार के विचार के प्राश्रित जो ज्ञान होता है उसका नाम जिह्वन्द्रिय-ईहाज्ञान है । जिह्वा - इन्द्रियव्यञ्जनावग्रह के प्रावारक कर्म को जिह्वेन्द्रियेहावरणीय - तिस्से ( जिब्भिदियगदजिह्वा इन्द्रियव्यञ्जनावग्रहणीय कहते हैं । ईहाए) प्रवारयं कम्मं जिब्भिदिय-ईहावरणीयं जिह्वेन्द्रियार्थावग्रह- उक्कस्सखग्रोव समगदजि- णाम । ( धव. पु. १३, पृ. २३१ ) । भिदियादो एत्तियमद्धाणमंतरिय द्विददव्वस्स रस- जिह्वन्द्रिय ईहाज्ञान के श्रावरक कर्म को जिह्व द्रिविसयं जं णाणमुपज्जदि सो जिब्भिदियप्रत्थोग्गहो -हावरणीय कहते हैं । णाम । ( धव. पु. १३, पृ. २२८ ) । उत्कृष्ट क्षयोपशम को प्राप्त हुई जिह्वा इन्द्रिय से इतने श्रध्वान का अन्तर करके-संज्ञी पंचेन्द्रिय श्रादि जीवों में यथासम्भव उक्त इन्द्रिय के विषयभूत क्षेत्र की दूरी पर स्थित द्रव्य के रसविषय का जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसका नाम जिह्वन्द्रिय- अर्थावग्रह है । जिह्वेन्द्रियार्थावग्रहावर खोय-त - तस्स (जिब्भिदियत्थोग्गहस्स) जमावारथं कम्मं तं जिब्भिदियप्रत्थोग्गहावरणीयं णाम । ( धव. पु. १३, पृ. २२८) । जातव्यवहार- असुह - कम्म मल-मइलियस्स परमविसोहणं जीयववहारं ति । ( जीतक. चू. १, पृ. २)। अशुभ कर्मरूपी मैल से होने वाली मलिनता को श्रतिशय शुद्ध करना — उसे दूर करना, इसका नाम जीतव्यवहार है । जिद्रिय श्रर्थावग्रह के श्रावारक कर्म को जिह्व - न्द्रिय अर्थावग्रहावरणीय कहते हैं । जिह्वेन्द्रियावायज्ञान - जिभिदिय-ईहाणाणेण अवगलगाव भबण एगवियप्पम्मि उप्पण्णणिच्छो जिब्भिदिय-अवाम्रो णाम । ( धव. पु. १३, पृ. २३२) । जिह्वन्द्रिय ईहाज्ञान से जाने गये हेतु के बल से किसी एक ही विकल्पविषयक जो निश्चयात्मक ज्ञान उत्पन्न होता है उसका नाम जिह्न न्द्रियश्रवायज्ञान है । जिह्वेन्द्रियावायावरणीय- --तस्स (जिब्भिदिय अवायणाणस्स) प्रवारयं कम्मं जिब्भिदिय-श्रावायावरणीयं णाम । (घव. पु. १३, पृ. २३२ ) । जिह्वन्द्रिय श्रवायज्ञान के श्रावारक कर्म को जिह्व ेद्रियवायावरणीय कहते हैं । जोव - १. जीवो त्ति हवदि चेदा उवश्रोगविसेसिदो पहू कत्ता । भोत्ता य देहमत्तो ण हि मुत्तो कम्मसंजुत्तो ॥ (पंचा. का. २७) । २. पाणेहि चदुहि जीवदि जीवस्सदि जो हि जीविदो पुव्वं । सो जीवो पाणा पुण पुग्गलदव्वेहि णिव्वत्ता ॥ (पंचा. का. ३०; प्रव. सा. २५५ ) । ३. उवयोगमप्रो जीवो XXX। ( प्रव. सा. २ - ८३ ) । ४. चेदणभावो जी XXX ॥ ( नि. सा. ३७) । ५. उपयोगो लक्षणम् । (त. सू. २ - ८ ) । ६. सामान्यं खलु लक्षणमुपयोगो भवति सर्वजीवानाम् 1 ( प्रशमर. १-६४) । ७. चेतनालक्षणो जीवः । ( स. सि. १-४) । ८. औपशमिकादिभावयुक्तो द्रव्यं जीवः । ( त. भा. १ - ७ ) ; ऊर्ध्वगौरवधर्माणो जीवाः । (त. भा. ९० - ६ )। ६. X XX जीवो उवग्रोगलक्खणो । नाणेणं दंसणेण च, सुहेण य दुहेण य ॥ नाणं च दंसणं चेव, चरितं च तवो तहा । वीरियं उवः श्रोगो य एवं जीवस्स लक्खणं || ( उत्तरा २८, १०-११ ) । १०. प्रमाता स्वान्यनिर्भासी कर्ता भोक्ता विवृत्तिमान् । स्वसंवेदनससिद्धो जीवः क्षित्याद्यनात्मकः ।। ( न्यायाव. ३१) । ११. जीवि - ष्यन्ति च जीवन्ति जीवा यच्चाप्यजीविषुः 37 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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