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________________ जघन्य अपहृतसंयम ४५४, जैन-लक्षणावली [जङ्घाचारणा जघन्य अपहृतसंयम-प्रासुकवसत्याहारमात्रबाह्य- १ अविरत सम्यग्दृष्टि जीवको जघन्य पात्र कहते साधनस्य, स्वाधीनेतरज्ञान चरणकरणस्य बाह्यजन्तु- हैं। २ शीलवान् मिथ्यादृष्टि पुरुष जघन्य पात्र पनिपातेxxxउपकरणान्तरेच्छया जीवान् परि- कहलाता है । पालयतो जघन्यापहृतसंयमः । (त. वा. ६, ६, १५ जघन्य स्थितिसंक्रम--१. एक्का ठिई जहण्णो त. इलो. ६-६; चा. सा., पृ. ३२)। अणुद इयाणं निहयसेसा । (पंचसं. सं. क. ४३, पृ. जो प्रासुक वसति और प्राहार मात्र बाह्य साधनों ४८); एकस्याः स्थितेयः सङ्क्रमः स जघन्यसङ्से युक्त होकर ज्ञान, चारित्र एवं अन्य आवश्यक क्रमः, अनुदयवतीनां तु या निहतशेषा जघन्या क्रियाओं में उद्युक्त होता हा बाह्य जीवों का स्थितिः सा जघन्यसक्रम इति । (पंचसं. सं. स्वो. वृ. समागम होने पर मयूरपिच्छ से भिन्न अन्य उपकरण क, ४३)। २. उदयवतीनां प्रकृतीनां समयाधिकाके द्वारा उनका संरक्षण करता है वह जघन्य अपहृत वलिकाशेणयां स्थितौ एकस्याः समयमात्रायाः संयम वाला होता है। स्थितेयः संक्रमः स जघन्यस्थितिसंक्रमः, अनुदयव. जघन्यपद-अल्पबहत्व-तत्थ अण्णं कम्माणं जह- तीनां पुनः प्रकृतीनां यो निहतशेषा स्थितिरुद्ध []ण्णदव्वविसयमप्पाबहुगं जहण्णपदप्पाबहगं णाम । रति, तस्याः संक्रमे जघन्यः स्थितिसंक्रमः। (पञ्चस. (धव. पु. १०, पृ. ३८५)। सं. क. ४३, पृ. ४६)। पाठ कर्मों के जघन्य द्रव्यविषयक अल्पबहत्व को १ उदयमें वर्तमान प्रकृतियों स्थिति में को एक समय जघन्य-पद-प्रल्पबहुत्व कहते हैं । अधिक प्रावलीकालके शेष रह जाने पर एक समय जघन्यपदमीमांसा-जत्थ पंचण्हं सरीराणं जहण्ण- प्रमाण वाली स्थिति के संक्रमण को जघन्य स्थितिदव्वपरिक्खा कीरदि सा जहण्णपदमीमांसा । संक्रम कहते हैं, तथा उदय से रहित प्रकृतियों की (धव. पु. १४, पृ. ३६७)। घातने से शेष रही स्थिति के संक्रमण को जघन्य जिस प्रकरण में पांच शरीरों के जघन्य द्रव्य की स्थितिसंक्रम कहते हैं। परीक्षा की जाती है उसका नाम जघन्यपदमीमांसा जङ्गम प्रतिमा--मोक्षगमनकाले एकस्मिन् समये जिनप्रतिमा जंगमा कथ्यते । (द. प्रा. टी. ३५) । जघन्य पात्र-१. जघन्यमुदितं पात्रं सम्यग्दष्टि- मक्तिगमन के काल में एक समय में अरिहन्तों की रसंयतः । (ह. पु. ७-१०६) । २. जघन्यं शील- मूर्ति को जंगमप्रतिमा कहते हैं । वान् मिथ्यादृष्टिश्च पुरुषो भवेत् । (म. पु. २०, जङ्गलक्षेत्र-जंगलक्षेत्रं नाम त्रसप्रचुरं खादीसम१४०, पुरु. च. ८-१८)। ३. अविरइसम्माइट्री तदादि अन्येषां कर्म राष्ट्र (?) मरुविषय-पारियात्रजहण्णपत्तं तु अक्खियं समये। (भावसं. दे. ४९८)। मालवादि, यत्र प्रचुरं पानीयं नास्ति ।(प्रायश्चित्तस. ४. कुमुदबान्धवदीधितिदर्शनो भवजरामरणातिवि- टी. पृ. ४१६)। भीलुकः । कृतचतुर्विधसङघहितेहितो जननभोगशरी- त्रस जीवों से व्याप्त और प्रचुर जल से रहित क्षेत्र रविरिक्तधीः ।। भवति यो जिनशासनभासकः सतत. को जंगलक्षेत्र कहते हैं। जैसे-मारवाड़, पारियात्र निन्दन-गर्हणचञ्चुरः । स्व-परतत्त्वविचारणकोविदो और मालव प्रादि। व्रतविधाननिरुत्सुकमानसः ।। जिनपतीडिततत्त्ववि. जङ्काचारणा-१. चउरंगुलमेतमहिं छडिय गयचक्षणो विपुलधर्मफलेक्षणतोषितः । सकलजन्तुदया- णम्मि कुडिलजाणु विणा। जं वहुजोयणगमणं सा द्वितचेतनस्तमिह पात्रमुशन्ति जघन्यकम् ॥ (अमित. जंघाचारणा रिद्धी ॥ (ति. प. ४-१०३७)। श्रा. १०,३१-३३)। ५.xxxव्रतेन रहित २. अतिसयचरणसमत्था जंघाविज्जाहि चारणा सुदृशं जघन्यम् । (सा.प. २-६७ टि.);Xxx मुणयो । जंघाहि जाति पढमो णीसं कातुं रविकरं अधमम् । सुदृष्टिस्तुXxx ॥ (सा.ध, ५.४४)। वि ।। एगुप्पादेण गतो रुयगवरमितो ततो परिणि६. केवलं यस्य सम्यक्त्वं विद्यते न पुनर्वतम् । यत्तो। वितिएणं गंदीस्सरमिध ततो एति ततितज्जघन्यमिति प्राहुः पात्रं निर्मल बुद्धयः ।। (पू. एणं ।। पढमेण पंडगवणं वितिउप्पातेण णंदणं एति । उपासका. ४७)। तति उप्पादेण ततो इध जंघाचारणो एति ।। (विशेषा. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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