SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 147
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छाया] ४४६, जैन-लक्षणावली [छिन्ननिमित्त वा नाचष्टे गुणान् सतोऽपि । (त. भा. सिद्ध. व. मुपविष्टः सर्वमर्थमववुध्यते व्याख्यानादुत्थितश्च ६-२४) । न किमपि स्मरति स छिद्र कुटसमानः, यथा हि १ प्रतिबन्धक हेतु के सन्निधान में दूसरे के समीचीन छिद्र कुटो यावत्तदवस्थ एव गाढमवनितलसंलग्नो या विद्यमान गुणों को प्रगट नहीं करना, यह छादन ऽवतिष्ठते तावन्न किमपि जलं ततः श्रवति, स्तोक शब्द का अभिप्राय है। वा किंचिदिति, एवमेषोऽपि यावदाचार्यः पूर्वापरानुछाया - १. छाया प्रकाशावरणनिमित्ता। (स. सि. सन्धानेन सूत्रार्थ मुपदिशति तावदवबुध्यते, उत्थितश्चेद् ५-२४; त. वा. ५, २४, १६)। २. पृथिव्यादि- व्याख्यानमण्डल्याः तर्हि स्वयं पूर्वापरानुसन्धानघनपरिणाम्युपश्लेषात् देहादिप्रकाशावरणतल्या कारेण विकलत्वान्न किमपि अनुस्मरति । (प्राव. नि.मलय. छिद्यते, छिनत्त्यात्मानमिति वा छाया। (त. वा. ५, बृ. १३६, पृ. १४३) २४, १) । ३. वृक्षाद्याश्रयरूपा मनुष्यादिप्रति. जिस घड़े के नीचे मूल में छेद हो उसे छिद्र कूट बिम्बरूपा च छाया विज्ञेया। (बृ. द्रध्यसं. टी. १६)। कहते हैं । जैसे छिद्रकुट जब तक भूमि के ऊपर ४. प्रकाशावरणकारणभूता छाया द्विप्रकारा । एका । संलग्न रहता है तब तक उससे जल नहीं निकलता वर्णादिविकृतिपरिणता। कोऽर्थः ? गौरादिवर्ण परि- है, या कुछ थोड़ा सा ही निकलता है। वैसे ही त्यज्य श्यामादिभावं गता । द्वितीया छाया प्रतिच्छन्द- जो शिष्य जब तक व्याख्यानमण्डली में बैठा रहता मात्रात्मिका । (त. वृत्ति श्रुत. ५-२४) । ५. वृक्षा है तब तक उपदिष्ट अर्थ को पूर्ण रूप से प्रहण द्याश्रयरूपा मनुष्यादिप्रतिबिम्बरूपा वर्णादिविकार करता है, तत्पश्चात् कुछ भी स्मरण नहीं करता परिणता च छाया। (कातिके. टी. २०६) । है, उसे छिद्रकुट समान शिष्य कहा जाता है। ६. छ्यति छि नत्ति वा तपमिति छाया । (उत्तरा. छिन्ननिमित्त-देखो छिन्नमहानिमित्त । १. सुरनि. शा. वृ. १-५७, पृ. ३८)। दाणव-रक्खस-णर-तिरिएहिं छिण्णसत्थ-वत्थाणि । १ प्रकाश के प्रावरण के निमित्त से जो प्रतिबिम्ब पासाद-णयर-देसादियाणि चिण्हाणि दणं ॥ (परछाई) पड़ता है उसका नाम छाया है। कालत्तयसंभूदं सुहासुहं मरणविविहदव्वं च । सुहछायागति-ते कि तं छायागतिः ? ३ जंण हय दुक्खाई लक्खइ चिण्हणिमित्तं ति तं जाणइ। (ति. छायं वा गयछायं वा नरछायं वा किण्णरछायं वा प. ४,१०११-१२) । २. वस्त्र-शस्त्र-छत्रोपानदामहोरगछायं वा गंधवछायं वा उसहछायं वा सन-शयनादिषु देव-मानुष-राक्षसादिविभागः शस्त्र कण्टक-मषिकादिकृतछेदनदर्शनात् कालत्रयविषयरहछायं वा छत्तछायं वा उवसंपत्तिज्जा णं गच्छति से तं छायागतिः । (प्रज्ञाप. १६, लाभालाभ-सुखदुःखादिसूचनं छिन्नम् । (त. वा, ३, ३६, ३)। ३. तत्र बीजपदादध:स्थितान्येव२०५, पृ. ३२७)। पदानि बीजवदस्थितिलिगेन जानाति [वस्त्रघोड़ा, हाथी, मनुष्य, किन्नर, महोरग, गन्धर्व, शस्त्र-छनोपानदासन-शयनादिषु देव-मानुष-राक्षसावृषभ रथ अथवा छत्र की छाया की समीपता से जो गमन होता है, इसका नाम छयागति है। दिवि ] भागः शस्त्र-कण्टक-भूषिकादिकृत्च्छेददर्शनात् कालत्रयविषयलाभालाभ-सूखदुःखादिसंस्तवनं छिन्नछायानुपातगति-से कि त छायाणवायगती ? म् । (चा. सा. पृ. ६६)। ४. यं प्रहारं छेदं जे णं पुरिसं छाया अणुगच्छति नो पुरिसे छायं वा दृष्ट्वा पुरुषस्यान्यस्य वा शुभाशुभं ज्ञायते अणुगच्छति, से तं छायाणुवायगती । (प्रज्ञाप. तच्छिन्न निमित्तं नाम । (मूला. वृ. ६-३०)। १६-२०५, पृ. ३२७)। १ देव, दानव, राक्षस, मनुष्य और तिर्यचों के छाया जो पुरुष के पीछे चलती है, पुरुष छाया के द्वारा छदे गये शस्त्र और वस्त्र प्रादि को तथा पीछे नहीं चलता, यह छायानुपातगति कहलाती है। छिन्न प्रासाद, नगर एवं देश आदि को देखकर तीनों छिद्रकुटसमान शिष्य-यस्य अधो बुध्ने छिद्रः कालों सम्बन्धी शुभ-अशुभ, मरण एवं सुख-दुःखादि स छिद्र कूटः। xxx यो व्याख्यानमण्डल्या- को जान लेना, यह छिन्ननिमित्त कहलाता ल. ५७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy