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________________ घ्राणेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहावरणीय ] ४२८, जैन- लक्षणावली दव्वविसय विष्णाणं सो घाणिदियवंजणोग्गहो णाम । ( धव. पु. १३, पू. २२२) । प्राण इन्द्रिय का विषय अनेक प्रकार का सुगन्ध श्रौर दुर्गन्ध है । सुगन्ध और दुर्गन्ध रूप पुद्गलों के अतिमुक्तक पुष्प के श्राकार स्वरूप घ्राण इन्द्रिय के भीतर प्रविष्ट होने पर जो उक्त सुगन्ध औौर दुर्गन्ध द्रव्यविषयक प्रथम ज्ञान उत्पन्न होता हैं उसे घ्राणेन्द्रियव्यंजनावग्रह कहते हैं । घ्राणेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहावर रणीयकर्म - तस्स (घाणिदियवं जणोग्गहस्स) जमावारयं कम्मं तं घाणिदियवंजणोग्गहावरणीयं णाम । (धव. पु. १३, पू. २२५ ) । जो कर्म घ्राणेन्द्रियव्यञ्जनावग्रह को श्राच्छादित करता है उसे घ्राणेन्द्रियव्यञ्जनावग्रहावरणीय कर्म कहते हैं । घ्राणेन्द्रियार्थावग्रह - घाणिदियादो उक्कस्सखस्रोवसमं गदादो एत्तियमद्धाणमंतरिय द्विददव्वम्मि जं गंधणाणमुपज्जदि सो घाणिदियप्रत्थोग्गहो । (घव. पु. १३, पृ. २२८ ) । उत्कृष्ट क्षयोपशम को प्राप्त घ्राण इन्द्रिय से इतने मात्र (सं. पं. प. ६ यो, असं पं. प. ४०० ध., च. प. २०० ध, त्री. प. १०० ध.) क्षेत्र का अन्तर करके स्थित द्रव्य के गन्ध का जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे घ्राणेन्द्रिय-प्रर्थावग्रह कहते हैं । घ्राणेन्द्रियार्थावग्रहावरणीय कर्म -- तस्स घाणिदित्थोग्गहस्ख) जमावारयं कम्म तं धाणिदियश्रत्थोग्गहावरणीयं णाम । (धव. पु. १३, पृ. २२८ ) । घ्राणेन्द्रिय- श्रर्थावग्रह के निरोधक कर्म को प्राणेन्द्रियग्रथग्रहावरणीय कहते हैं । घ्राणेन्द्रियावायज्ञान - XX X एवं सव्वेसि अवायावरणीयाणं पुध पुध परूवणा जाणिय कायव्वा (चाणिदिय-ईहाणाणेण अवगलगावट्टभबलेण एगवियम्मि उप्पण्णणिच्छम्रो घाणिदिय प्रवायो णाम ) | ( धव. पु. १३, पू. २३२) । घ्राणेन्द्रिय-ईहाज्ञान से श्रवगत लिंग के बल से एक विकल्प में उत्पन्न हुए निश्चय का नाम घ्राणेन्द्रियश्रवाय है । घ्राणेन्द्रियवायावरणीय- --तस्स (घाणिदियावायस्स) आयं कम्मं घाणिदियावायावरणीयं । ( धव. पु. १ पृ. २३२) । Jain Education International [ चक्रमुद्वा उस (घ्राणेन्द्रिय प्रवायज्ञान) का श्रावारक कर्म घ्राणेन्द्रियावायावरणीय कर्म कहलाता है । घ्राणेन्द्रियेहाज्ञान - घाणिदिएण गंधमवग्गहिदूण एसो गंधो कि गुणरूवो किमगुणरूवो कि दुस्सहाओ किमदुस्सहाम्रो कि जच्चतमावण्णो त्ति पंचण्णं वियपाणमण्णदमवियप्पलिगण्णेसणं एदेण होदव्वमिदि पच्चयपज्जवसाणं घाणिदियगदईहा । ( धव. पु. १३, पृ. २३१) । घ्राण इन्द्रिय के द्वारा गन्ध का अवग्रह करके 'यह गन्ध क्या गुणरूप है क्या श्रगुणरूप है, क्या दुष्ट स्वभाव वाला है, क्या अदुष्ट (उत्तम) स्वभाव वाला है, अथवा क्या जात्यन्तर स्वभाव को प्राप्त है; इन पांच विकल्पों में से किसी एक विकल्प के हेतु को खोजकर वह यह गुण प्रगुणादिरूप होना चाहिए, इस प्रकार का जो अन्त में ज्ञान होता है उसे घ्राणेन्द्रियजनित ईहाज्ञान कहते हैं । घ्राणेन्द्रियेहावरणीय कर्म - तिस्से ( घाणिदियईहाए ) प्रवारयं कम्म घाणिदियईहावरणीयं । (घव. पु. १३, पृ. २३१) । घ्राणेन्द्रियजनित ईहाज्ञान को जो श्राच्छादित करता है उसे घ्राणेन्द्रियेहावरणीय कर्म कहते हैं । चक्रकदूषण - त्रिभिरावर्तनं चक्रकदूषणम् । त्रितयादिसिद्धाव्यवधानेन त्रितयाद्यपेक्षा चक्रक्रत्वम्, अथवा पूर्वस्य पूर्वापेक्षित मध्यमापेक्षितोत्तरापेक्षितत्वम्, अथवा स्वापेक्षणीयापेक्षित सापेक्षत्वनिबन्धनप्रसङ्गत्वमिति । (प्र. र. मा. टि. ३ - ६५ पृ. २२८ ) । तीन आदि की सिद्धि के लिए श्रव्यवधान से उन्हीं तीन श्रादि की अपेक्षा रहना, यह चक्रकदूषण कहलाता है । जैसे -- सर्वज्ञाभाव की सिद्धि के लिए कर्ता का स्मरण हेतु - कर्ता के श्रस्मरण से सर्वज्ञाभाव सिद्ध हो, सर्वज्ञाभाव सिद्ध होने पर वेद का प्रामाण्य सिद्ध हो, और वेद के प्रामाण्य से कर्ता का अस्मरण सिद्ध हो; इस प्रकार चक्र के समान तीनों के एक दूसरे पर श्राश्रित रहने से उनमें से एक की भी सिद्धि सम्भव नहीं है । चक्रमुद्रा - वामहस्ततले दक्षिणहस्तमूलं सन्निवेश्य करशाखा विरलीकृत्य प्रसारयेदिति चक्रमुद्रा । (निर्वाणक. पू. ३२) । बायें हाथ के तल पर दाहिने हाथ के मूल को रख For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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