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________________ क्षोभ] ४०४, जैन-लक्षणावली [खलीन दोष लिंग से भी युक्त साधु को क्षेम-क्षेमरूप भावमार्ग १ घड़े के कपाल-शर्करा आदि टुकड़ों को खण्ड कहते हैं। कहते हैं। क्षोभ-निर्विकारनिश्चलचित्तवृत्तिरूपचारित्रस्य वि- खण्डकूट-यस्य पुन रेकपाश्र्व खण्डेन हीनता स नाशकश्चारित्रमोहाभिधानः क्षोभ इत्युच्यते । (प्रव. खण्डकुटः । (प्राव. नि. मलय. वृ. १३६, पृ. १४३)। सा. जय. वृ. ८)। एक बाजू से फूट हुए घड़े को खण्डकुट कहते हैं। निविकार और निश्चल चित्तवत्तिरूप चारित्र के । खण्ड कुट-समान शिष्य-यस्तु व्याख्यानमण्डल्याविनाशक चारित्रमोह को क्षोभ कहते हैं। मुपविष्टोऽर्द्धमात्र त्रिभागं चतुष्कं वा हीनं वा सूत्रा र्थमवधारयति तथाऽवधारितं च स्मरति स खण्डक्षमालीक-क्ष्मालीक परस्वकामपि भूमिमात्मस्वकां विपर्ययं वा वदतो भवेत् । (सा.प. स्वो. टी. कुटसमानः । (प्राव. नि. मलय. ब. १३६, पृ. १४३) । ३-३६) । जैसे खण्डित हुए घड़े में धारण किया गया जल दूसरे की भी भूमि को अपनी बतलाने तथा अपनी अल्प मात्रा में ठहरता है, इसी प्रकार जो शिष्य को दूसरे की भूमि बतलाने को क्षमालीक कहते हैं। व्याख्यानमण्डली में बैठकर गरु के द्वारा उपदिष्ट अभिप्राय यह कि भूमि-सम्बन्धी प्रसत्य वचन को क्ष्मालीक कहते हैं। सूत्रार्थ को प्राधा, तृतीयांश, चतुर्थांश अथवा और भी हीन अवधारण करता है व अवधारित का श्वेलौषधि-१. जीए लाला सें भच्छीमल-सिंहाण स्मरण करता है उसे खण्डकुट समान शिष्य प्रादिना सिग्छ । जीवाण रोगहरणा स च्चिय खेलो कहते हैं। सही रिद्धी ।। (ति. प. ४-१०६६)। २. क्ष्वेलो खण्डाभेद-से कि तं खंडाभेदे ? जण्णं प्रयखडाण निष्ठीवनमौषधिर्येषां ते वेलौषधिप्राप्ताः । (त. वा. वा तउखंडाण वा तंबखडाण वा सीसखंडाण वा ३, ३६, ३)। ३. सेंभ-लाला-सिंघाण-विप्पुसादीण रययखडाण वा जातरूवखंडाण वा खंडएण भेदे खेलो त्ति सण्णा । एसो खेलो अोसहित पत्तो जेसि भवति से तं खंडाभेदे । (प्रज्ञाप. ११-१७१)। ते खेलोसहिपत्ता । (धव. पु. ६, पृ. ६६)। लोहा, त्रपु (संगा), तांबा, शीशा, चांदी और १ जिस ऋद्धि के प्रभाव से कफ, प्रांख का मल। सोना; इनके खण्डों का जो खण्डरूप से भेद होता और नासिका का मल प्रादि जीवों के रोग को है उसे खण्डाभेद कहते हैं। शीघ्र दूर करने वाले होते हैं वह क्वेलौषधि ऋद्धि खलता-XXX अपगुणकथाभ्यासखलता । कहलाती है। (युक्त्य नु. ६४) । खगचर-विज्जाए विणा सहावदो चेव गगण अवगणों की कथा के अभ्यास का नाम खलता है। गमणसमत्थेसू खगयरत्तप्पसिद्धीदो। (घव. पु. ११, खलोन दोष-१. यः खलीनपीडितोऽश्व इव दन्तपृ. ११५)। कटकटं मस्तकं कृत्वा कायोत्सर्ग करोति तस्य विद्या के बिना स्वभाव से ही जो प्राकाश में गमन खलीनदोषः । (मला. व. ७-१७१) । २. खलीनकरने में समर्थ हो वह खगचर कहलाता है। मिव रजोहरणं पुरस्कृत्य स्थान खलीलनदोषः । खडगमद्रा-दक्षिणकरेण मुष्टि बद्ध्वा तर्जनी अन्ये खलीनार्तहयवदूर्वाधःशिरकम्पन खलीनदोषमध्ये प्रसारयेदिति खड्गमुद्रा । (निर्वाणक. पृ. माहुः । (योगशा. स्वो. विव. ३-१३०)। ३.xx xखलीनितम् । खलीनार्ताश्ववहन्त घृष्टयोवधिश्च दाहिने हाथ की मट्ठी बांध कर तर्जनी अंगुली के लच्छिरः। (अन. प. ८-११६) । फैलाने को खड्गमुद्रा कहते हैं। १ खलीन नाम घोड़े की लगाम का है। खलीन से स्वर -१. खण्डो घटादीनां कपाल-शर्करादिः । पीड़ित घोड़े के समान दांतों की कटकटाहट यक्त ५-२४; त. वा. ५, २४, १४; कातिके. मस्तकको करके जो कायोत्सर्ग करता है उसके खलीन टा. २०६)। २. घट-करकादीनां भित्त-शर्करादि- दोष होता है। २ खलीन के समान रजोहरण को करणं खण्ड: प्रतिपाद्यते । (त. वृत्ति श्रुत. ५-२४)। : प्रागे करके स्थित होना, यह खलीनदोष कहलाता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016022
Book TitleJain Lakshanavali Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages452
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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