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________________ ६८ जैन-लक्षणावली पादि नगरियों के साथ विभंगानदियों प्रादिका भी वर्णन किया गया है । इसमें १९८ गाथायें हैं। (९) अपरविवेह-पूर्व विदेहगत कच्छा मादि के ही समान यहाँ रत्नसंचयादि नगरियों और पदमा आदि विजयों का वर्णन किया गया है । यहाँ १९७ गाथायें हैं। (१०) लवणसमुद्र विभाग-यहाँ लवणसमुद्रके विस्तारादि के साथ उनमें स्थित विविध पातालों और कृष्ण-शुक्ल पक्षों में होनेवाली हानि-वृद्धि आदिका निरूपण किया गया है। इसमें १०२ गाथायें हैं। (११) द्वीप-सागरादि-यहाँ धातकीखण्ड द्वीप, कालोद समुद्र और पुष्कर द्वीप का वर्णन करते हए रत्नप्रभादि सात पृथिवियों, उनमें स्थित भवनवासी व व्यन्तर देवों, नरकों में उत्पन्न होनेवाले नारकियों, अढ़ाई द्वीपों व स्वयम्भूरमण समुद्र के पूर्व में स्थित असंख्यात द्वीप-समुद्रों में उत्पन्न होनेवाले तिर्यचों तथा वैमानिक देवोंकी प्ररूपणा की गई है । यहाँ ३६५ गाथायें हैं। (१२) ज्योतिषपटल-इस उद्देश में चन्द्र-सूर्यादि ज्योतिषी देवों की प्ररूपणा की गई है। (१३) प्रमाणभेद-यहाँ विविध मानों का वर्णन करते हुए समय-पावली आदि कालमानों और परमाणु व त्रसरेणु आदि क्षेत्रमानों का विवेचन किया गया है। पश्चात् प्रत्यक्ष व परोक्षरूप प्रमाणभेदों की चर्चा करते हुए सर्वज्ञताका भी कुछ विचार किया गया है। सर्वान्त में मनुष्यक्षेत्रस्थ इष्वाकार पर्वतों, यमक पर्वतों, जम्ब ग्रादि वृक्षों, वनों, भोगभूमियों और नदियों आदि की समस्त संख्या का निर्देश करते हुए ग्रन्थकार ने अपना परिचय इस प्रकार दिया है-मैंने परमागम के देशक प्रसिद्ध विजय गुरु के पास में अमृतस्वरूप जिनवचन को सुनकर कुछ उद्देशों में इस ग्रन्थ को रचा है। माघनन्दी गुरु, उनके शिष्य सिद्धान्तमहोदधि सकलचन्द्र गुरु और उनके शिष्य श्रीनन्दी गुरु हुए। उनके (श्रीनन्दिगुरु के) निमित्त यह जम्बुद्वीप की प्रज्ञप्ति लिखी गई है । पंचाचार से समग्र वीरनन्दीगुरु, उनके शिष्य बलनन्दी गुरु और उनके शिष्य गुणगणकलित, गारवरहित और सिद्धान्त के पारंगत पद्मनन्दी हुए। मुनि पद्मनन्दी ने विजयगुरु के पास में सुपरिशुद्ध पागम को सुनकर इसे संक्षेप में लिखा है। उस समय नापतियो से पूजित शक्ति भूपाल वारा नगर का प्रभु था। मुनिगणों के समूहों से मण्डित यह वारा नगर पारियात्र देश में स्थित था। इस वारा नगर में रहते हुए संक्षेप से बहुपदार्थ संयुक्त जम्बूद्वीप की प्रज्ञप्ति लिखी गई है । छद्मस्थ से विरचित इसमें जो भी प्रवचन विरुद्ध लिखा गया हो, उसे सुगीतार्थ प्रवचनवत्सलता से शुद्ध कर लें। इस पर तिलोयपण्णत्ती का प्रभाव प्रस्तुत ग्रन्थ पूर्व निर्दिष्ट तिलोयपण्णत्ती की शैली पर लिखा गया है। जैसे तिलोयपण्णत्ती में सर्वप्रथम पंचगरुषों की वन्दना की गई है। वैसे ही इसके प्रारम्भ भी उक्त पंचगरुषों की बन्दना की गई है। विशेष इतना है कि जहाँ तिलोयपण्णत्ती में प्रथमतः सिद्धों को नमस्कार किया गया है वहाँ प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रथमतः अरिहंतों को नमस्कार किया गया है। ति. प. में प्रथम महाधिकार के अन्त में नाभेय जिन (ऋषभनाथ) को नमस्कार करके प्रागे प्रत्येक महाधिकार के आदि व अन्त में क्रमश: अजितादि तीर्थंकरों को नमस्कार करते हए अन्तिम नौवें महाधिकार के प्रारम्भ में शान्ति जिन को नमस्कार किया गया है। तत्पश्चात् इसी नौवें महाधिकार के अन्त में कन्थ आदि वर्धमानान्त शेष तीर्थंकरों को नमस्कार किया गया है। इसी प्रकार इसी में भी द्वितीय उद्देश के प्रारम्भ में ऋषभ जिनेन्द्र को और अन्त में अजित जिनेन्द्र को नमस्कार किया गया है। इसी क्रम से आगे प्रत्येक उद्देश के आदि व अन्त में एक-एक तीर्थंकर को नमस्कार करते डर तेरहवें अधिकार के अन्त में वीर जिनेन्द्र को नमस्कार किया गया है। २. उ. १३, गा. १५४-५७. १. उ. १३, गा. १४४-४५. ३. उ. १३, गा. १५५-६४. ४. उद्देश १३, गा. १६५-७०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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