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________________ जैन-लक्षणावली का निर्देश किया गया है । तत्पश्चात् जम्बूद्वीपादि के विस्तारादि का वर्णन करते हुए उक्त ज्योतिषियों के स्थान, विमान, संचार, ताप व तम (अन्धकार) के क्षेत्र, अधिक मास, दक्षिण-उत्तरायण और संख्या प्रादि का निरूपण किया गया है। (५) वैमानिकलोक-इस अधिकार में १६ कल्पों के नामों का निर्देश करते हुए उनमें १२ इन्द्रों की व्यवस्था, कल्पातीत (६ प्रैवेयक, ६ अनुदिश और ५ अनुत्तर) विमान, इन्द्र कादि विमानों का विस्तारादि, देव-देवियों की विक्रिया और उनके वैभव आदि की प्ररूपणा की गई है। (E) नर-तिर्यग्लोक-यहां भरतादि सात क्षेत्र. हिमवान प्रादि छह कुलपर्वत, इन पर्वतों के ऊपर स्थित तालावों में रहनेवाली श्री-ही आदि देवियां, उनका परिवार, उक्त तालाबों से निकलनेवाली गंगासिन्धू आदि चौदह नदियां, पूर्वोक्त क्षेत्र-पर्वतादिकों का विस्तारादि व उसके लाने के गणितसूत्र, विदेहक्षेत्र के मध्य में स्थित मेरु पर्वत, उसके ऊपर पाण्डक वनमें स्थित तीर्थंकराभिषेक-शिलायें, विदेहक्षेत्र में वर्षा आदि का स्वरूप, बत्तीस विदेह और तद्गत नगरियों (राजधानियों) के नाम, विजयार्धगत ११० नगरियों के नाम, पर्वतों पर स्थित कूटों के नाम, चतुर्थ काल में होनेवाले शलाकापुरुष तथा पांचवें व छठे कालों में होनेवाले परिणमन; इत्यादि यथाप्रसंग कितने ही विषयों की प्ररूपणा की गई है। अन्त में नन्दीश्वरद्वीपस्थ ५२ जिनभवनों का निर्देश कर अष्टाह्निक पर्व में वहाँ इन्द्रादिकों के द्वारा की जाने वाली पूजा का उल्लेख करते हए उत्तम, मध्यम और जघन्य अकृत्रिम जिनभवनों के रचनाक्रम को दिखलाया गया है। प्रत्येक अधिकार के प्रारम्भ में ग्रन्थकार द्वारा वहां वर्तमान प्रकृत्रिम जिनभवनों की वन्दना की गई है। सर्वान्त में अपनी लघुता को प्रगट करते हुए ग्रन्थकार ने यह कहा है कि अभयनन्दी के वत्स अल्पश्रुत के ज्ञाता मुझ नेमिचन्द्र मुनि के द्वारा यह त्रिलोकसार रचा गया है। बहुश्रुत प्राचार्य उसे क्षमा करें। ६६. पंचसंग्रह-यह प्राचार्य अमित गति (द्वितीय) के द्वारा विक्रम सं. १०७३ में रचा गया है । इसमें पांच परिच्छेद हैं । जैसा कि प्रारम्भ (श्लोक २) में संकेत किया गया है, तदनुसार इसमें वन्धक, बध्यमान, बन्धस्वामी, बन्धकारण और बन्धभेद ये पांच प्रकरण हैं। पद्यसंख्या उसकी इस प्रकार है३५३+४+१०६+७७६+६+६०-१४५५ । बीच-बीच में बहुतसा गद्य भाग भी है। बन्धक प्रकरण में कर्म के बन्धक जीवों की प्ररूपणा गुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, मार्गणा और उपयोग प्रादि के प्राश्रय से की गई है। दूसरे प्रकरण में बध्यमान-बन्ध को प्राप्त होनेवाली ज्ञानावरणादि कर्मप्रकृतियों-की प्ररूपणा की गई है। तीसरे प्रकरण में वन्ध के स्वामियों की प्ररूपणा करते हुए बन्ध, उदय और सत्त्व की व्युच्छित्ति आदि का विवेचन किया गया है। चौथे प्रकरण में बन्धकारणों का विचार करते हए प्रथमत: चौदह जीवसमासों में से एकेन्द्रिय अादि जीवों में कहां कितने वे सम्भव हैं, इसका विवेचन किया गया है । प्रागे यही विवेचन मार्गणाओं के आश्रय से किया गया है। तत्पश्चात् गत्यादि मार्गणाओं एवं जीवसमास आदि में कहां कितने गुणस्थान, उपयोग, योग और प्रत्यय (कारण) सम्भव हैं; इत्यादि का विचार किया गया है। प्रागे मार्गणानों के प्राश्रय से बन्धस्थान, उदयस्थान और सत्त्वस्थानों की प्ररूपणा करते हुए अन्त में गणस्थान और मार्गणास्थानों में कौन जीव कितनी और किन-किन प्रकृतियों के बन्धक हैं, इत्यादि का विचार किया गया है। ___ यहां पुष्पिकावाक्यों में पृ. ४८ पर जीवसमास, पृ. ५३ पर प्रकृतिस्तव, पृ. ७२ पर कर्मबन्धस्तव, पृ. १४६ पर शतक और पृ. २२५ पर सप्ततिप्रकरण के समाप्त होने की सूचना की गई है। इसके अतिरिक्त पृ. ४८ पर महावीर को नमस्कार करते हुए प्रकृतिस्तव के कहने की, पृ.५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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