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________________ ६० जैन-मक्षणावल इसी क्रम से आगे ज्ञानावरणादि प्रत्येक कर्म की उत्तरप्रकृतियों में बन्ध, उदय और सत्ता तथा संयोगी भंगों का विचार किया गया है। तत्पश्चात् किस गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का बन्ध होता है, इसको स्पष्ट करते हुए उपशम. श्रेणि, अनन्तानुबन्धी का उपशम, यथाप्रवृत्तादिकरण, गूणश्रेणि, गूणसंक्रमण और क्षपकणि प्रादि का निरूपण किया गया है। इसके ऊपर प्राचार्य मलयगिरि के द्वारा टीका रची गई है। इस टीका के साथ उपर्युक्त प्रात्मानन्द सभा भावनगर से शतक (५वां कर्म ग्रन्थ दे.) के साथ प्रकाशित हुआ है। प्राचार्य मलयगिरि विरचित टीका सहित एक षष्ठ कर्मग्रन्थ जैनधर्मप्रसारक सभा भावनगर से भी प्रकाशित हुआ है। पर दोनों की गाथाओं में कुछ भिन्नता भी है। इसका उपयोग (टीका से) अगुरुलघु नामकर्म, प्रानुपूर्वी, पाहारक (शरीर), आहारपर्याप्ति, उद्योत और उपघात आदि शब्दों में हुधा है। ६५. कर्मविपाक-यह गर्गर्षि के द्वारा रचा गया प्रथम प्राचीन कर्मग्रन्थ है। गर्षि का सम त नहीं है। सम्भवतः वे विक्रम की १०वीं शताब्दी में हुए हैं। ग्रन्थगत गाथाओं की संख्या १६८ है। इसमें सर्वप्रथम वीर जिनेन्द्र को नमस्कार करते हुए गुरूपदिष्ट कर्मविपाक को संक्षेप से कहने को प्रतिज्ञा की गई है। यहाँ कर्म का निरुक्त (क्रियते इति कर्म) अर्थ करते हुए यह कहा गया है कि चार गतियों में परिभ्रमण करने वाले संसारी जीव के द्वारा मिथ्यात्वादि के आश्रय से जो किया जाता है वह कर्म कहलाता है। वह प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद से चार प्रकार का है। उसकी मूल प्रकृतियां पाठ और उत्तर प्रकृतियां एक सौ अदावन हैं । मूल प्रकृतियों का नामनिर्देश करते हए. उनके लिए कम से पट, प्रतीहार, प्रसि, मद्य, हडि (काठ की बेड़ी), चित्र (चित्रकार), कुम्हार और भाण्डागारिक; ये दृष्टान्त दिये गये हैं । आगे क्रम से इन मूल और उत्तर प्रकृतियों का स्वरूप दिखलाया गया है। इस पर एक व्याख्या अज्ञातकर्तृक और दूसरी एक वृत्ति परमानन्द सूरि (सम्भवतः विक्रम की १२-१३वीं शताब्दी) द्वारा विरचित है। यह जैन प्रात्मानन्द सभा भावनगर से प्रकाशित हुआ है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुअा है मूल-अगुरुलघु नामकर्म, पातप नामकर्म, आहारक-कार्मणबन्धन, पाहारकबन्धन, उद्योत, उपघात नामकर्म और उपभोग आदि । व्याख्या-अङ्गोपांगनाम, अगुरुलघु नामकर्म, अनन्तानुबन्धी और अप्रत्याख्यानक्रोधादि । प. वृत्ति-अन्तरायकर्म और आयुकर्म प्रादि। ६६. गोम्मटसार-इसके रचयिता प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती हैं । इनका समय विक्रम की ११वीं शताब्दी है । ये चामुण्डराय के समकालीन रहे हैं। चामुण्डराय राजा राचमल्ल के मंत्री और सेनापति थे। उनका दूसरा नाम गोम्मटराय भी रहा है। प्रस्तुत ग्रन्थ उन्हीं के उक्त नाम से गोम्मटसार कहलाता है। कारण यह कि उन्हीं के प्रश्न पर वह प्रा. नेमिचन्द्र द्वारा रचा गया है। इसकी रचना षट्खण्डागम नामक सिद्धान्तग्रन्थ के अाधार से हुई है। उन्होंने स्वयं यह कहा है कि जिस प्रकार चक्रवर्ती ने चक्ररत्न के द्वारा छह खण्ड स्वरूप भरत क्षेत्र को निर्विघ्न सिद्ध किया, उसी प्रकार मैने बुद्धिरूप चक्र के द्वारा छह खण्डस्वरूप षट्खण्डागम को भले प्रकार सिद्ध किया है-उसके रहस्य को हृदयंगत किया है। इसके अन्तर्गत समस्त गाथाओं की संख्या १७०५ है। वह जीवकाण्ड और कर्मकाण्ड इन दो भागों में विभक्त है। जीवकाण्ड-इस विभाग में ७३३ गाथायें हैं । इसमें गुणस्थान, जोवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, १. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भाग ४, पृ. १२७. २. जह चक्केण य चक्की छक्खंड साहियं अविग्घेण । तह मइचक्केण मया छवखंड साहियं सम्म ॥ गो. क. ३९७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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