SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८ जैन-लक्षणावली चारित्र एवं तप ही आत्मा है और राग-द्वेषादि से रहित उसी शुद्ध प्रात्मा के आराधना की प्रेरणा की आगे आराधक (क्षपक) की विशेषता को प्रगट करते हुए कहा गया है कि भेदगत (व्यवहाररूप) चार प्रकार की आराधना भी मोक्ष की साधक है। इस प्रकार व्यवहार आराधना को महत्त्वपूर्ण बतलाते हुए अर्ह, संगत्याग, कषायमल्लेखना, परीषहजय, उपसर्ग सहने का सामर्थ्य, इन्द्रियजय और मन का नियमन इन सात स्थलों के द्वारा दीर्घकालसंचित कर्मों को नष्ट करने के लिए प्रेरित किया गया है। अन्त में जिन मुनीन्द्रों के द्वारा अाराधनासार का उपदेश किया गया है तथा जिन्होंने उसका अाराधन किया है उन सबकी वन्दना करते हुए कहा गया है कि मैं न तो कवि हैं और न छन्द के लक्षण को भी कुछ जानता हूँ। मैंने तो निज भावना के निमित्त अाराधनासार को रचा है। अन्तिम गाथा में अपने नाम का निर्देश करते हुए कहा गया है कि यदि इसमें कुछ प्रवचनविरुद्ध कहा गया हो तो उसे मुनीन्द्र जन शुद्ध कर लें। इसके ऊपर क्षेमकीति के शिष्य रत्नकीति (विक्रम की १५वीं शती) के द्वारा टीका लिखी गई है। इस टीका के साथ वह मा. दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है मूल-पाराधक आदि। टीका-आस्रव और उपशम आदि । ६३ पंचसंग्रह-इसके रचयिता चन्दर्षि महत्तर हैं। इनका समय निश्चित नहीं है। सम्भवत: वे विक्रम की १०-११वीं शताब्दी के विद्वान होना चाहिए। प्रस्तुत ग्रन्थ दो विभागों में विभक्त है। यहाँ सर्वप्रथम वीर जिन को नमस्कार करके पंचसंग्रह के कहने की प्रतिज्ञा की गई है । 'पंचसंग्रह' इस नाम की सार्थकता को प्रगट करते हुए कहा गया है कि इसमें चूंकि यथायोग्य शतक आदि पांच ग्रन्थों का अथवा पांच द्वारों का संक्षेप (संग्रह) किया गया है, इसीलिए इसका 'पंचसंग्रह' यह सार्थक नाम है। वे पांच द्वार ये हैं-जीवस्थानों में योगों व उपयोगों का मार्गण (अन्वेषण), बन्धक, बन्धव्य-बांधने योग्य कर्म, बन्धहेतु और बन्धभेद । इनकी प्ररूपणा इसके प्रथम विभाग में की गई है। प्रथम द्वार में ३४ गाथाये हैं । यहाँ जीवस्थानों और मार्गण स्थानों में यथासम्भव योगों और उपयोगों की प्ररूपणा की गई है। दूसरे द्वार में ८४ गाथायें हैं। यहां बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त व अपर्याप्त एकेन्द्रिय; पर्याप्त व अपर्याप्त द्वीन्द्रियादि तीन, तथा संज्ञी व असंज्ञी पर्याप्त-अपर्याप्त पंचेन्द्रिय ; इन १४ बन्धक जीवस्थानों की प्ररूपणा सत्-संख्या आदि पाठ अधिकारों के प्राथय से की गई है। तीसरे बन्धक द्वार में ६७ गाथायें है । यहाँ वन्ध के योग्य ज्ञानावरणादि पाठ कर्म और उनके उत्तरभेदों के स्वरूप प्रादि की चर्चा की गई है। चौथे वन्धहेतु द्वार में २३ गाथायें हैं। यहाँ बन्ध के कारणभूत मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग इनकी तथा इनके उत्तरभेदों की प्ररूपणा की गई है। पांचवें बन्धविधान द्वर में १८५ गाथायें हैं। यहाँ बांधे गये कर्म के प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के प्राश्रय से बन्ध, उदय, उदीरणा और सत्त्व का विस्तार से विचार किया गया है । दूसरे विभाग में प्रथमतः १०१ गाथा प्रों के द्वारा कर्मप्रकृति के अनुसार बन्धन, संक्रम, उदी रणा और उपशमना करणों का निरूपण किया गया है। तत्पश्चात ३ गाथानों में निधत्ति-निकाचना करणों का विचार करते हुए अन्त में १५६ गाथानों द्वारा सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव बन्ध के सवेध का विवेचन किया गया है। इस पर एक टीका स्वोपज्ञ और गरी ग्रा. मलयगिरि द्वारा विरचित है। यह इन दोनों टोकायों के साथ मुक्ताबाई ज्ञानमन्दिर उभोई से तथा केवल स्वोपज्ञ टीका के साथ सेठ देवचन्द लालभाई जैन ह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy