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________________ जैन-लक्षणावली शरीर और कषायों का संलेखन करना-प्रागमोक्त विधि के अनुसार उन्हें कृश करना, इसका नाम संलेखना है । इसका वर्णन अन्तिम संलेखना अधिकार में किया गया है । इसके ऊपर स्वयं हरिभद्र सूरि के द्वारा टीका (स्वोपज्ञ) लिखी गई है। इस टीका के साथ वह देवचन्द्र लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड वम्बई से प्रकाशित हया है। इसका उपयोग प्रारभटा और इत्वरपरिहारविशुद्धिक आदि शब्दों में हुआ है। ८७. तत्त्वार्थसत्रवत्ति-यह उक्त हरिभद्र सरि द्वारा विरचित तत्त्वार्थसत्र की भाष्यानुसारिणी व्याख्या है । इसमें मूल सूत्रों की भाष्य के अनुसार व्याख्या करते हुए कितने ही महत्त्वपूर्ण विषयों की चर्चा की गई है। इसका उपयोग अकामनिर्जरा, अङ्गोपाङ्गनामकर्म, अचक्षदर्शन, अज्ञानपरीषहजय और प्रतिभारारोपण आदि शब्दों में हुआ है। ८८. भावसंग्रह-यह आचार्य देवसेन के द्वारा रचा गया है। देवसेन का समय विक्रम की १०वीं शताब्दी है । ये विमलसेन गणधर के शिष्य थे। उन्होंने वि. सं. ६६० में दर्शनसार की रचना की है। प्रस्तुत ग्रन्थ प्राकृत गाथाओं में रचा गया है। बीच में कुछ थोड़े से अन्य छन्दों का भी उपयोग हुग्रा है। समस्त पद्यसंख्या ७०१ है। यहाँ प्रथमतः जीव के मुक्त और संसारी इन दो भेदों का निर्देश करते हुए भाव से पाप, भाव से पुण्य और भाव से मोक्ष प्राप्त होने की सूचना की गई है। तत्पश्चात् प्रौदयिकादि पांच भावों का निर्देश करके मिथ्यात्व ग्रादि चौदह गुणस्थानों के नामोल्लेखपूर्वक क्रम से उनकी प्ररूपणा की गई है। प्रथम गुणस्थान के प्रसंग में मिथ्यात्व का विवेचन करते हुए सग्रन्थ और निर्ग्रन्थ को मुक्ति बतलाने वाले श्वेताम्बर सम्प्रदाय की समीक्षा की गई है। इस समीक्षा में सग्रन्थता, स्त्रीमुक्ति, केवलिभुक्ति, जिनकल्प और स्थविरकल्प आदि की चर्चा की गई है। इसी प्रसंग में श्वेताम्बर सम्प्रदाय की उत्पत्ति के सम्बन्ध में यह कहा गया है कि विक्रमराजा की मृत्यु के पश्चात् १३६वें वर्ष में सौराष्ट्र के अन्तर्गत बलभी में श्वेतपट संघ उत्पन्न हया । इस प्रकार उक्त चर्चा से सम्बद्ध संशयमिथ्यात्व की प्ररूपणा १६०वीं गाथा में समाप्त हई है। आगे अनेक प्रासंगिक चर्चामों के साथ यहाँ उक्त चौदह गुणस्थानों का निरूपण किया गया है। ग्रन्थ मा. दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई से प्रकाशित हुना है। इसका उपयोग अनिवृत्तिकरण गुणस्थान, अप्रमत्तसंयत, अविरतसम्यग्दृष्टि और उपशमसम्यक्त्व आदि शब्दों में हुआ है।। १६. प्रालापपद्धति-इसके कर्ता उक्त देवसेनाचार्य हैं। यहाँ प्रथमतः द्रव्य के लक्षण का निर्देश करते हुए अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व, प्रदेशत्व, चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व और अमर्तत्व इन दस सामान्य गुणों में से प्रत्येक द्रव्य के वे पाठ-पाठ बतलाये गये हैं। प्रारम्भ के छह गुण तो सभी में रहते हैं । चेतनत्व, अचेतनत्व, मूर्तत्व और अमूर्तत्व इन चार में से कोई दो ही रह सकते हैं। जैसे-जीव में पूर्वोक्त छह के साथ चेतनत्व और अमूर्तत्व हैं तथा पुद्गल में अचेतनत्व और मूर्तत्व हैं। विशेष गण सोलह हैं। उनमें से प्रत्येक द्रव्य में कितने और कौन से सम्भव हैं, इसका विचार करते हए पर्यायों के स्वरूप और उनके भेदों का विवेचन किया गया है। इसके पश्चात द्रव्यों के इक्कीस स्वभावों में से ग्यारह सामान्य और दस विशेष स्वभावों का विश्लेषण करते हए वे जीवादि द्रव्यों में से किसके कितने सम्भव हैं, इसका विचार किया गया है । तत्पश्चात प्रमाणभेदों और नयभेदों की चर्चा की इसका प्रकाशन नयचक्र के साथ मा. दि. जैन ग्रन्थमाला बम्बई से और प्रथम गुच्छक में निर्णयसागर मुद्रणालय से हुआ है। इसका उपयोग अनुपचरितसद्भूतव्यवहारनय और अनुपचरितासद्भूतव्यवहारनय आदि शब्दों में हुआ है। १०. तच्चसार(तत्त्वसार)-यह भी उक्त देवसेनाचार्य की कृति है। इसमें ७४ गाथायें हैं। सर्वप्रथम यहां परमसिद्धों को नमस्कार कर तच्चसार के कहने की प्रतिज्ञा की गई है। पश्चात् यह कहा गया है कि तत्त्व बहत प्रकार का है, उसका वर्णन पूर्वाचार्यों द्वारा धर्म के प्रवर्तन और भव्य जनों के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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