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________________ जैन-मक्षणावली लालभाई जैन पुस्तकोद्धार फण्ड वम्बई से प्रकाशित हुआ है। इसका उपयोग प्रचौर्यमहाव्रत और अहिंसामहाव्रत मादि शब्दों में हुआ है। ५७. ज्योतिष्करण्डक-इसके कर्ता का नाम अज्ञात है। इसमें २१ प्राभृत (अधिकार) और सब गाथायें ३७६ हैं। यहां कालमान, मासभेद, वर्षभेद, दिन व तिथि का प्रमाण, परमाणु का स्वरूप व उससे निष्पन्न होने वाले अंगुल आदि का प्रमाण, चन्द्र की हानि-वृद्धि, चन्द्र-सूर्यों की संख्या, नक्षत्रों की प्राकृति; चन्द्र, सूर्य व नक्षत्र आदि की गति, सूर्य-चन्द्रमण्डल और पौरुषीप्रमाण, इत्यादि विषयों की प्ररूपणा की गई है। इस पर प्राचार्य मलयगिरि की टीका है। गाथा ६४-७१ में लतांग व लता प्रादि कालमानों की प्ररूपणा की गई है। ये कालमान अनुयोगद्वारसूत्र में निरूपित कालमानों से कुछ भिन्न हैं। इस भिन्नता का विचार करते हुए टीका में मलयगिरि ने यह कहा है कि स्कन्दिलाचार्य के समय दुष्षमाकाल के प्रभाव से जो दुर्भिक्ष पड़ा था, उसके कारण साधुओं का अध्ययन व गुणन (चिन्तन) प्रादि सब नष्ट हो गया था। उस दुर्भिक्ष के नष्ट होने पर सुभिक्ष के समय दो संघों का मिलाप हुग्रा-एक वलभी में और एक मथुरा में । उनमें सूत्रार्थ की संघटना से परस्पर वाचनाभेद हो गया। सो वह अस्वाभाविक भी नहीं हैं, क्योंकि विस्मत सूत्र और अर्थ का स्मरण कर करके संघटना करने पर वाचनाभेद अवश्यंभावी है। इसमें असंगति कुछ भी नहीं है। उनमें जो अनुयोगद्वार आदि आज वर्तमान हैं वे माथुर वाचना के अनुसार हैं । पर ज्योतिष्करण्डक के कर्ता प्राचार्य वालभी वाचना के अनुयायी रहे हैं । इस जो संख्यास्थानों का प्रतिपादन किया गया है वह वालभ्य वाचना के अनुसार किया गया है । अतएव अनुयोगद्वारप्रतिपादित संख्यास्थानों से इनकी भिन्नता को देख करके अश्रद्धा नहीं करना चाहिए। यह उक्त टीका के साथ ऋषभदेव जी केशरीमलजी श्वे. संस्था रतलाम से प्रकाशित हुआ है। इसका उपयोग प्रक्ष (मापविशेष), अभिवधित मास, अभिवधित संवत्सर, आदित्यमास, अादित्यसंवत्सर, उच्छवास और उत्सर्पिणी आदि शब्दों में हुआ है। ५८. प्रा. पंचसंग्रह (दि.)-पंचसंग्रह इस नाम से प्रसिद्ध अनेक ग्रन्थ हैं, जो संस्कृत और प्राकृत दोनों ही भाषाओं में रचे गये हैं। उनमें यहां दिगम्बर सम्प्रदाय मान्य पंचसंग्रह का परिचय कराया जा रहा है। यह किसके द्वारा रचा या संकलित किया गया है, यह अभी तक अज्ञात ही बना हमा है। पर विषयव्यावर्णन और रचनाशैली को देखते हुए वह बहुत कुछ प्राचीन प्रतीत होता है। इसमें माम के अनुसार ये पांच प्रकरण हैं-जीवसमास, प्रकृतिसमुत्कीर्तन, बन्धस्तव, शतक और सप्ततिका । इनकी गाथासंख्या क्रमशः इस प्रकार है-२०६+१२+७+५२२+५०७-१३२४ । प्रकृतिसमुत्कीर्तन नामक दूसरे प्रकरण में कुछ गधभाग भी है। उक्त पांच प्रकरणों में क्रम से कर्म के बन्धक (जीव), बध्यमान (कर्म), बन्धस्वामित्व, बन्ध के कारण और बन्ध के भेदों की प्ररूपणा की गई है। प्रसंग के अनुसार अन्य भी विषयों का-जैसे उदय व सत्त्व आदि का-निरूपण किया गया है। वीरसेनाचार्य द्वारा अपनी धवला टीका में अनेक ऐसी गाथाओं को उद्घत किया गया है जो यथास्थान प्रस्तुत पंचसंग्रह में उपलब्ध होती हैं । पर ग्रन्थ और ग्रन्थकार के नाम का निर्देश वहाँ कहीं नहीं किया गया है। इससे कहा नहीं जा सकता है कि उनके समक्ष प्रस्तुत पंचसंग्रह रहा है या अन्य कोई प्राचीन ग्रन्थ । इसके ऊपर भट्टारक सुमतिकीर्ति द्वारा संस्कृत टीका रची गई है। जिसे उन्होंने भाद्रपद शुक्ला दशमी वि. सं. १६२० को पूर्ण किया है । यह भारतीय ज्ञानपीठ काशी से प्रकाशित हो चुका है। इसका उपयोग अनिवृत्तिकरण गुणस्थान, अपूर्वकरण गुणस्थान, अयोगिजिन, अलेश्य, अविरतसम्यग्दष्टि और आहारक (जीव) आदि शब्दों में हुआ हुआ है। ५६. परमात्मप्रकाश-इसके रचयिता योगीन्दु देव हैं। उनका समय विक्रम की छठी-सातवीं १. ज्योतिष्क. टीका ७१, पृ. ४० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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