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________________ प्रस्तावना ४१ लघु भाष्य, एक अज्ञातकर्तृक चूणि, तथा तीन टीकाओं में से एक मलधारी हेमचन्द्र सूरि (वि. की१२वीं श.) विरचित, दूसरी उदयप्रभ सूरि (सम्भतः वि. की १३वीं श.) विरचित मौर तीसरी टीका गुणरत्नसूरि (वि. की १५ वीं श.) द्वारा विरचित है। प्रस्तुत ग्रन्थ में चौदह जीवस्थान (जीवसमास) और चौदह गुणस्थानों में जहाँ जिसने उपयोग और योग सम्भव हैं उनको दिखलाते हुए कारणनिर्देशपूर्वक प्रकृति-स्थिति प्रादि चार प्रकार के बन्ध, उदय और उदीरणा की प्ररूपणा की गई है इसका एक संस्करण भाष्य और मलघारीय टीका के साथ वीर समाज राजनगर द्वारा प्रकाशित कराया गया है। इसका उपयोग इन शब्दों में हरा है भाष्य-अनिवृत्तिकरण गुणस्थान, अपूर्वकरण गुणस्थान और अविरतसम्यग्दृष्टि प्रादि । टीका-अध्रुवबन्ध, अप्रत्याख्यानावरणक्रोधादि और उदय आदि। ५३. उपदेशरत्नमाला-इसके रचियता धर्मदास गणि हैं। ये महावीर स्वामी के हस्तदीक्षित शिष्य थे, इस मान्यता को 'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास' में विचारणीय बतलाया है। इसका कारण वहां किये गये वज्रस्वामी के उल्लेख के अतिरिक्त प्राचारांगादि जैसी प्राचीन भाषा का प्रभाव भी है। ग्रन्थकार धर्मदास गणि ने गाथा ५३७ और ६४० में इसके रचयिता के रूप में स्वयं ही अपने नाम का उल्लेख किया है। ग्रन्थगत गाथाओं की संख्या ५४४ है। (गा. ५४२ के अनुसार यह गाथासंख्या ५४० है।) इस उपदेशपरक ग्रन्थ में अनेक पौराणिक व्यक्तियों के उदाहरण देते हुए गुरु की महत्ता, प्राचार्य की विशेषता, विनय, धर्म एवं क्षमा आदि अनेक उपयोगी विषयों का विवेचन किया गया है। इसके ऊपर कई टीकार्ये लिखी गई हैं । पर हमें सटीक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हो सका । मूल मात्र पंचाशक आदि के साथ ऋषभदेव जी केशरीमलजी श्वेताम्बर संस्था रतलाम द्वारा प्रकाशित किया गया है। इसका उपयोग अपायविचय, प्राज्ञाविचय, प्रादाननिक्षेपणसमिति, ईर्यासमिति और एषणासमिति आदि शब्दों में हुना है। ५४. जीवसमास-यह किसकी कृति है, यह ज्ञात नहीं होता । मुद्रित संस्करण (मूल मात्र) में 'पूर्वभृत् सूरि सूत्रित' ऐसा निर्देश मात्र किया गया है। यह प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ है। समस्त गाथायें २८६ हैं । यहाँ प्रथमतः चौबीस जिनेन्द्रों को नमस्कार कर संक्षेप में जीवसमासों के कथन की प्रतिज्ञा की गई है। प्रागे 'ये जीवसमास निक्षेप व निरुक्तिपूर्वक छह अथवा पाठ अनुयोगद्वारों तथा गति प्रादि चौदह मार्गणागों के द्वारा ज्ञातव्य हैं' ऐसी सूचना करके प्रकृत छह अनुयोगद्वारों का प्रश्नात्मक निर्देश इस प्रकार किया गया है-१ विवक्षित मिथ्यात्व प्रादि क्या हैं, २ किसके होते हैं, सुयणे सुणंतु जाणंतु बुहजणा तह विसोहंतु ॥ सत्त-णव-रुद्दमियवच्छ रम्मि विक्कमणिवाउ वट्टते । कत्तिय-चउमासदिणे गोल्लविसयविसेसणे नयरे ॥ दहिवइंमी सिरिसिद्धरायभूवइपसायगेहस्स । अन्नलदेवनिवइणो सुहरज्जे बट्टमाणम्मि ॥ णिप्फत्तिमुवगयमिणं ता नंदउ जाव सिद्धिसुहमले । तियलोक्कपायडजसो जिणवरधम्मो जये जय ॥ पु. १३३-३४. १. जैन साहित्य का बृहद् इतिहास भा. ४, पृ. १६३. २. धंत-मणि-दाम-ससि-गय-णिहिपयपढमक्खराभिहाणेणं । उवएसमालपगरणमिणमो रइयं हिनदाए ॥५३७॥ इसमें घंत, मणि, दाम, ससि, गय और णिहि: इन पदों के प्रथम अक्षर को क्रम से ग्रहण करने धंमदास (धर्मदास) गणि होता है, इनके द्वारा इस उपदेशमाला प्रकरण के रचे जाने की सूचना की गई है। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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