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________________ जैन-लक्षणावली बन्धक, २५ कर्मवेदक, २६ वेदबन्धक, २७ वेदवेदक २८ अाहार, २६ उपयोग, ३० स्पर्शनता, ३१ संज्ञी, ३२ संयम, ३३ अवधि, ३४ प्रविचारणा, ३५ वेदना और ३६ समुद्घात । इसमें समस्त सूत्रों की संख्या ३४६ है। बीच में कहीं-कहीं कुछ गाथा सूत्र भी उपलब्ध होते हैं। मूल ग्रन्थ का प्रमाण ७७८७ है। टीका के अन्त में रि ने अपना यह अभिप्राय व्यक्त किया है कि टीकाकार वे हरिभद्र सरि जयवन्त रहें, जिन्होंने इस ग्रन्थ के विषम पदों के भाव को स्पष्ट किया है तथा जिनके वचन के प्रभाव से मैंने लेशरूप में इस विवृति को रचा है। यह मलयगिरि विरचित उस टीका के साथ प्रागमोदय समिति मेहसाना से प्रकाशित हमा है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुपा है मूल-अणुतटिकाभेद और अपरीतसंसार आदि । टीका-प्रद्धाद्धामिश्रिता, अनन्तानुबन्धी, अनादेयनाम, अनानुगामिक अवधि और आवजितकरण आदि । ३७. सूर्यप्रज्ञप्ति-यह ग्रन्थ हमें उपलब्ध नहीं हो सका। इसका कुछ परिचय यहां 'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (भा० २, पृ०१०५)' के अनुसार दिया जा रहा है। यह पांचवां उपांग है। इसके ऊपर भी प्रा. मलयगिरि की टीका है। इसमें २० प्राभूत और १०८ सूत्र हैं, जिनके पाश्रय से सूर्य, चन्द्र एवं नक्षत्रों आदि का विस्तार से वर्णन किया गया है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुश्रा है मल-अभिवद्धित संवत्सर आदि । टीका-अनगार, अभिवद्धि त संवत्सर और आदित्य आदि । ३८. जम्बद्वीपप्रज्ञप्ति-यह छठा उपांग है। इसके ऊपर शान्तिचन्द्र वाचकेन्द्र (विक्रम की १६-१७वीं शती) विरचित प्रमेयरत्नमञ्जूषा नाम की एक टीका है । टीकाकार ने १२ अंगों के साथ १२ उपांगों का सम्बन्ध जोड़ते हुए प्रस्तुत छठे उपाँग का सम्बन्ध ज्ञाताधर्मकथांग से बतलाया है (पृ. १-२)। मंगलाचरण के बाद तीसरे श्लोक में उन्होंने इसके ऊपर प्राचार्य मलयगिरि द्वारा रची गई टीका की सूचना करते हुए उसे संशय-ताप का नाशक कहा है। आगे चलकर उन्होंने सभी अंगों और उपांगों के टीका. कारों का नामोल्लेख करते हुए यह कहा है कि प्रस्तुत उपांग की वृत्ति श्री मलयगिरि के द्वारा की जाने पर भी वह इस समय कालदोष से व्यवछिन्न हो गई है। इसी प्रकरण में उन्होंने यह भी निर्देश किया है कि वीरनिर्वाण के पश्चात् एक हजार (१०००) वर्ष में दृष्टिवाद व्यवच्छिन्न हो गया, इस कारण उसके विवरण का प्रयोजन नहीं रहा। प्रस्तुत ग्रन्थ में ७ वक्षस्कार (अधिकार) हैं। प्रत्येक वक्षस्कार की अन्तिम पुष्पिका में टीकाकार ने अपने को अकबर के शासनकाल में उसे धर्मोपदेश से विस्मित करने वाले श्रीमत्तपागच्छाधिराज श्री हीरविजयसूरीश्वर के पाद-पद्मों की उपासना में प्रवण महोपाध्याय श्री सकलचन्द्र गणी का शिष्य उपाध्याय श्री शान्तिचन्द्र गणी बतलाया है। इसमें जम्बूद्वीपगत भरतादि सात क्षेत्र, कुलाचल, सुदर्शनमेरु, जम्बूद्वीप की जगती, विजयद्वार, संख्यामान, सुषमसुषमादिकाल, दुःषमसुषम काल में होने वाले तीर्थकर व चक्रवर्ती आदि, चक्रवर्ती के दिग्विजय और सूर्यचन्द्रादि ज्योतिषियों की प्ररूपणा की गई है। समस्त सूत्रसंख्या १७८ और मलग्रन्थ का प्रमाण ४१४६ अन्त में ५१ श्लोकों द्वारा टीकाकार ने अपनी प्रशस्ति दी है। इसका उपयोग टीका के आश्रय से अनगार, अनुगम और अनुयोग आदि शब्दों में किया गया है। ३६. उत्तराध्ययन सत्र-यह मूल सूत्रों में प्रथम माना जाता है। इसका रचनाकाल महावीर निर्वाण से लेकर लगभग १००० वर्षों में माना जाता है । कारण इसका यह है कि छत्तीस अध्ययनस्वरूप यह र क संकलन ग्रन्थ है, जिसका रचयिता कोई एक नहीं है-महावीर निर्वाण से लेकर उक्त हजार वों के भीतर विभिन्न स्थविरों के द्वारा इसके विभिन्न अध्ययनों का संकलन किया गया प्रतीत होता है। है, तत्र प्रस्तुतोपाङ्गस्य वृत्ति: श्रीमलयगिरिकृतापि संप्रति कालदोषेण व्यवच्छिन्ना । पृ. २११. २. उत्तराध्ययन-सूत्र : एक परिशीलन' पृ. २६-३७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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