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________________ प्रस्तावना २३ ६. व्यन्तरलोक-जिस प्रकार भावनलोक अधिकार में भवनवासी देवों की प्ररूपणा की गई है लगभग उसी प्रकार से कुछ विशेषताओं के साथ यहां व्यन्तर देवों की प्ररूपणा की गई है। ७. ज्योतिर्लोक-यहां १७ अधिकारों के द्वारा क्रम से ज्योतिषी देवों के निवासक्षेत्र, भेद, संख्या, विन्यास, परिमाण, चर ज्योतिषी देवों का संचार, अचर ज्योतिषियों का स्वरूप, प्रायु, आहार, उच्छ्वास, अवधि की शक्ति, एक समय में जन्म व मरण, आयुबन्ध के योग्य परिणाम, सम्यक्त्वग्रहण के कारण और गुणस्थानादि इन विषयों का वर्णन किया गया है। ८. सुरलोक (वैमानिक लोक)-इममें इक्कीस अधिकारों के द्वारा वैमानिक देवों के निवासक्षेत्र, विन्यास, भेद, नाम, सीमा, संख्या, इन्द्रविभूति, आयु, जन्म-मरण का अन्तर, आहार, उच्छ्वास, उत्सेध, वैमानिक देवों सम्बन्धी प्रायुबन्ध के योग्य परिणाम, लोकाभिक देवों का स्वरूप, गुणस्थानादि का स्वरूप, सम्यक्त्वग्रहण के कारण, प्रागति, अवधिज्ञान का विषय, देवों की संख्या, शक्ति और योनि इन सबका वर्णन किया गया है । ९. सिद्धलोक-इसमें ५ अधिकारों के द्वारा सिद्धों के निवासक्षेत्र, संख्या, अवगाहना, सुख और सिद्धत्व के योग्य भावों का विवेचन किया गया है। उपर्युक्त विषय-परिचय से यह भलीभांति ज्ञात हो जाता है कि प्रस्तुत ग्रन्थ में ज्ञातव्य अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का सुव्यवस्थित और प्रामाणिक विवेचन किया गया है। विषयबिवेचन की शैली को देखते हुए ग्रन्थ प्राचीन प्रतीत होता है। ग्रन्थकार के सामने जो इस विषय का पूर्व साहित्य रहा है उसका पूरा उपयोग इसमें किया गया है। यह जहाँ तहाँ प्रगट किये गये मतभेदों से सिद्ध है । ग्रन्थकार ने यथाप्रसंग म[स]ग्गायणी, मूलाचार, लोकविनिश्चय, लोकविभाग, लोकाय[यि] नी, सग्गायणी, संगाहणी और संगोयणी इतने ग्रन्थों का उल्लेख किया है। वर्तमान में जैन संस्कृति संरक्षक संघ सोलापुर से प्रकाशित एक 'लोकविभाग' उपलब्ध है, पर वह प्रस्तुत ग्रन्थ के बहुत बाद की रचना है। उसमें प्रस्तुत ग्रन्थ की बीसों गाथायें ग्रन्थनामोल्लेखपूर्वक यत्र तत्र उधुत की गई हैं। इस लोकविभाग के कर्ता सिंहसरर्षि ने अन्तिम प्रशस्ति में सर्वनन्दी विरचित एक लोकविभाग की सूचना की है। सम्भव है तिलोयपण्णत्तिकार के सामने यही लोकविभाग रहा हो, अथवा अन्य ही कोई लोकविभाग उनके सामने रहा हो।। यह ग्रन्थ जैन संस्कृति संरक्षक संघ सोलापुर से दो भागों में प्रकाशित हो चुका है। इसका उपयोग इन शब्दों में दुआ है-अक्षीणमहानस, अक्षीणमहालय, अङ्गनिमित्त, अगुल, अटट, अटटाङ्ग, अणिमा, प्रद्धापल्य, अधिराज, अनीक, अनुसारी, अन्तरिक्षमहानिमित्त, प्राकाशगामित्व, आत्मागुल, आभियोग्यभावना, प्राभ्यन्तरद्रव्यमल, ग्रामौषधिऋद्धि, आवास, आशीविष, उत्कृष्ट परीतानन्त, उत्कृष्टासंख्येयासंख्येय, उत्सपिणी, उत्सेधाङ्गुल, उद्धारपल्यकाल, उवसन्नासन्न, ऊर्ध्वलोक और श्रौत्पत्तिकी आदि। २६. प्राचारांग-प्रस्तुत प्राचारांगादि श्रुत का परिचय कराने के पूर्व यह बतला देना आवश्यक प्रतीत होता है कि वर्तमान संगसाहित्य के विषय में दिगम्बर (अचेलक) और श्वेताम्बर (सचेलक) परम्परा में कुछ मतभेद है। यद्यपि दोनो ही परम्परायें यह स्वीकार करती हैं कि अंग व अंगबाह्य श्रुत प्रवाहरूप से अनादि-निधन है-प्रत्येक तीर्थंकर के तीर्थ में उसका मौखिक पठन पाठन चालू रहता है, फिर भी वर्तमान में अन्तिम तीर्थंकर महावीर के निर्वाण के पश्चात् जम्बूस्वामी (अन्तिम केवली) तक उक्त श्रुत का प्रवाह अविछिन्न चलता रहा। तत्पश्चात् बारह वर्ष प्रमाण भीषण दुष्काल के समय अपने संयम को स्थिर रखने की इच्छा से कुछ साधु दक्षिण की ओर और कुछ समुद्र के किनारे की ओर चले गये । इस प्रकार पठन-गुणनादि के अभाव में श्रुत सब विनष्ट हो गया। अन्त में दुष्काल १. इन मतभेदों की एक तालिका प्रस्तुत ग्रन्थ के परिशिष्ट (भाग २, पृ०६८७-८८) में दे दी गई है। २. इन ग्रन्थों की सूचना भी उक्त परिशिष्ट में पृ० ६६५ पर कर दी गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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