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________________ उत्कृष्ट श्रावक ] लाभं भणित्वा प्रार्थयेत वा । मौनेन दर्शयित्वाङ्ग लाभालाभे समोऽचिरात् ।। निर्गत्यान्यद् गृहं गच्छेद् भिक्षोद्युक्तस्तु केनचित् । भोजनायार्थितोऽद्यात् तद् भुक्त्वा यद् भक्षितं मनाक् ॥ प्रार्थयेतान्यथा भिक्षां यावत् स्वोदरपूरणीम् । लभेत प्रासु यत्राम्भस्तत्र संशोध्य तां चरेत् ॥ श्राकांक्षन् संयमं भिक्षापात्रप्रक्षालनादिषु । स्वयं यतेत चादर्पः परथाऽसंयमो महान् । ततो गत्वा गुरूपान्तं प्रत्याख्यानं चतुर्विधं । गृह्णीयाद् विधिवत् सर्वं गुरोश्चालोचयेत् पुरः ।। यस्त्वेकभिक्षानियमो गत्वाऽद्यादनुमुन्यसौ । भुक्त्य भावे पुनः कुर्यादुपवासमवश्यकम् ।। वसेन्मुनिवने नित्यं शुश्रूषेत गुरूंश्चरेत् । तपो द्विधापि दशधा वैयावृत्यं विशेषतः ॥ तद्वद् द्वितीयः किन्त्वार्यसंज्ञो लुञ्चत्यसौ कचान् । कौपीनमात्रयुग् धत्ते यतिवत् प्रतिलेखनम् || स्वपाणिपात्र एवात्ति संशोध्यान्येन योजितम् । इच्छाकारं समाचारं मिथः सर्वे तु कुर्वते ॥ (सा. घ. ७, ३७ - ४६) । १ उत्कृष्ट - ग्यारहवीं प्रतिमाका धारक - श्रावक वह कहलाला है जो घर से मुनियों के श्राश्रम में जाकर गरु के समीप में व्रत को ग्रहण करता हुआ भिक्षाभोजन को करता है और वस्त्रखण्ड — लंगोटी मात्र को धारण करता है । २ उत्कृष्ट श्रावक दो प्रकार के होते हैं। उनमें प्रथम उत्कृष्ट श्रावक ( क्षुल्लक) एक वस्त्र को धारण करता है, पर दूसरा लंगोटी मात्र का धारक होता है। प्रथम उत्कृष्ट श्रावक बालों का परित्याग केंची या उस्तरे से करता है - उन्हें निकलवाता है तथा बैठने-उठने प्रादि क्रियाओं में प्रयत्नपूर्वक प्रतिलेखन करता है - प्राणिरक्षा के लिए कोमल वस्त्र श्रादि से भूमि श्रादि को झाड़ता है । भोजन वह बैठकर हाथरूप पात्र में करता है श्रथवा थाली आदि में भी करता है । परन्तु पर्वदिनों में - प्रष्टमी - चतुर्दशी श्रादि को - उपवास नियम से करता है । पात्र को धोकर व भिक्षा के लिए गृहस्थ के घर पर जाकर प्रांगन में स्थित होता हुआ 'धर्मलाभ' कहकर भिक्षा की स्वयं याचना करता है, तत्पश्चात् भोजन चाहे प्राप्त हो अथवा न भी प्राप्त हो, वह दैन्य भाव से रहित होता हुआ वहां से शीघ्र ही वापिस लौटकर दूसरे घर पर जाता है और मौन के साथ शरीर को दिखलाता है। बीच में यदि कोई श्रावक वचन २४८, जैन - लक्षणावली Jain Education International [ उत्कृष्ट स्थितिसंक्लेश द्वारा भोजन करने के लिए प्रार्थना करता है तो जो कुछ भिक्षा प्राप्त कर ली है, पहिले उसे खाकर तत्पश्चात् उसके अन्न को खाता है । परन्तु यदि मार्ग में कोई नहीं बुलाता है तो अपने उदर की पूर्ति के योग्य भिक्षा प्राप्त होने तक श्रन्यान्य ग्रहों में जाता है । तत्पश्चात् एक किसी गृह पर प्राक पानी को मांगकर व याचित भोजन को प्रयत्नपूर्वक शोधकर खाता है । फिर पात्र धोकर गुरु के पास में जाता है । यह भोजनविधि यदि किसी को नहीं रुचती है तो वह मुनि के प्रहार के पश्चात् किसी घर में चर्या के लिए प्रविष्ट होता है और एक भिक्षा के नियमपूर्वक भोजन करता है-यदि विधिपूर्वक वहां भोजन नहीं प्राप्त होता है तो फिर उपवास ही करता है । गुरु के पास विधिपूर्वक चार प्रकार के प्रत्याख्यान को— उपवास को ग्रहण करता है। व आलोचना करता है। दूसरे उत्कृष्ट श्रावक की भी यही विधि है । विशेषता इतनी है कि वह बालों का नियम से लोच ही करता है, पिच्छी को धारण करता है और हाथरूप पात्र में ही भोजन करता है । उत्कृष्ट सान्तरनवक्र मरणकाल - विदियादिवक्कमणकंदयाणमावलियाए असंखेज्जदिभागमेत्ताणं उक्कस्सकालकलाओ उक्कसगो सांतरवक्कमणकालो णाम । ( धव. पु. १४, पृ. ४७६ ) । श्रावलि के श्रसंख्यातवें भाग मात्र द्वितीय आदि श्रवक्रमणकाण्डकों के उत्कृष्ट कालसमूह का नाम उत्कृष्ट सान्तरश्रवक्रमणकाल है । उत्कृष्ट स्थितिप्राप्तक - जं कम्मं बंधसमयादो कम्मदी उदए दीसदि तम्मुक्कस्सद्विदिपत्तयं । ( कसायपा. चू. पू. २३५ ) । जो कर्म बन्धसमय से कर्मस्थिति के अनुसार उदय में दिखता है उसका नाम उत्कृष्ट स्थितिप्राप्तक है । उत्कृष्ट स्थितिसंक्लेश- अधवा उक्कस्सट्ठिदिबंध - पात्रोग्गप्रसंखेज्जलोगमेत्तसंकिलेसट्ठाणाणि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तखंडाणि काढूण तत्थ चरिमखंडस्स उक्कस्सट्ठिदिसंकिलेसो णाम । धव. पु. ११, पृ. ६१) । श्रथवा उत्कृष्ट स्थितिबन्ध के योग्य असंख्यात लोक मात्र संक्लेशस्थानों के पल्योपम के श्रसंख्यातवें भाग मात्र खण्ड करने पर उनमें अन्तिम खण्ड का नाम उत्कृष्ट स्थितिसंक्लेश है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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