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________________ आलोचना] २१४, जैन-लक्षणावली [प्रावरण १ अनेक भेदरूप जो शुभाशुभ कर्म उदय को प्राप्त और जाति प्रादि की कल्पना से रहित वस्तुसामान्य होते हैं उनको प्रात्मस्वरूप से पृथक् समझ कर दोष का जो मर्यादापूर्वक बोध होता है उसे पालोचना रूप मानना, इसका नाम पालोचन है। ३ गुरु के कहा जाता है। सम्मख दस दोषों से रहित अपने प्रमादजनित दोषों पालोचनानय-(नयतो नयप्रपञ्चतः इत्यर्थः । के निवेदन करने को पालोचन कहते हैं। अथवा कदा कारक इत्येतावद् द्वारं गतम्, नयत पालोचना-देखो आलोचन । १. करणिज्जा जे इत्येतत्तु द्वारान्तरमेव) इहाभिमुख्येन गुरोरात्मदोषजोगा तेसूवउत्तस्स निरइयारस्स । छउमत्थस्स प्रकाशनम् अालोचनानयः । (प्राव. भा. हरि. व. विसोही जइणो पालोयणा भणिया। (जीतक. सू. १७८, पृ. ४६६)। ५)। २. उग्गहसमयाणंतरं सब्भूयविसेसत्थाभि- प्रमुखता से गुरु के समक्ष अपने दोषों के प्रगट करने मुहमालोयणं पालोयणा भण्णति । (नन्दी. चू. का नाम पालोचनानय है । पृ. २६) । ३. तत्थ आलोयणा नाम अवस्स- आलोचनानुलोम्य - आलोचनानुलोम्यं तु पूर्व करणिज्जेसु भिक्खायरियाईसु जइवि अवराहो नत्थि- लघवः पालोच्यन्ते पश्चाद् गुरवः । (प्राव. नि. हरि. तहावि प्रणालोइए अविणपो भवइ त्ति काऊण अवस्सं वृ. १५०१)। पालोएयव्वं । सो जइ किंचि अणेसणाइ अवराहं गुरु के सामने पहले लघु अपराधों की और पीछे सरेज्जा, सो वा पायरितो किंचि सारेज्जा तम्हा गुरु अपराधों की आलोचना करने को पालोचनानपालोएयव्वं । पालोयणं ति वा पगासकरणं ति वा लोम्य कहते हैं। अक्खणं विसोहि त्ति वा । (दशवै. चू. १, पृ. २५)। आलोचनाह - पालोयणारिहं-या मज्जायाए ४. आलोयणा पयडणा भावस्स सदोसकहणमिह वट्टइ। का सा मज्जाया ? जह बालो जंपतो कज्जगझो। गुरुणो एसा य तहा सुविज्जराएण विन्ने- मकज्जं च उज्जुनो भणइ । तं तह पालोएज्जा प्रा॥ (मालो. वि. हरि.१५-३) । ५. आलोचना माया-मयविप्पमुक्को उ॥ एसा मज्जाया। आलोप्रयोजनवतो हस्तशताद् बहिर्गमनागमनादौ गुरोवि- यणं पगासीकरणं समुदायत्थो। गुरुपच्चक्खीकरणं कटना । (प्राव. नि. हरि. व. १४१८, पृ. ७६४)। मज्जायाए । ज पावं पालोइयमेत्तेणं चेव सुज्झइ एयं ६. प्राङ् मर्यादायाम्, आलोचनं दर्शनं परिच्छेदो आलोयणारिहं । (जीतक. चू. पृ. ६)। . मर्यादया यः स पालोचनं यथोक्तं पुरस्ताद् वस्तु- जिन अपराधों की शुद्धि केवल पालोचना से ही सामान्यस्यानिर्देश्यस्य स्वरूप-नाम-जात्यादिकल्पना- हो जाती है उन्हें पालोचनाह कहते हैं। वह पालोवियूतस्य यः परिच्छेदः सा आलोना मर्यादया चना मर्यादापूर्वक-बालक के समान माया और भवति । (त. भा. सिद्ध. वृ. १-१५)। ७. गुरूण- मद से रहित होकर-सरलतापूर्वक की जानी मपरिस्सवाणं सुदरहस्साणं वीयरायाणं तिरयणे मेरु चाहिए। व्व थिराणं सगदोसणिवेयणमालोयणा णाम पाय- आलोचनाशुद्धि-१. हंतूण कसाए इंदियाणि च्छित्तं । (धव. पु. १३, पृ. ६०)। ८. स्वकृताप- सव्वं च गारवं हंता। तो मलिदराग-दोसो करेहि राघगृहनत्यजनमालोचना । (भ. प्रा. विजयो. टी. आलोयणासुद्धि ॥ (भ. प्रा. ५२४) । २. माया६); स्वापराधनिवेदनं गुरूणामालोचना । (भ. प्रा. मृषारहितता पालोचनाशुद्धिः । (भ. प्रा. मूला. टी. विजयो. टी. ६६)। ६. स एव वर्तमानकर्मविपा- १६६)। कमात्मनोऽत्यन्तभेदेनोपलम्भमानः पालोचना भवति। १ क्रोधादि कषाय, इन्द्रियविषय, सब (तीनों प्रकार (समयप्रा. अमृत. वृ. ४०५)। का) गारव और राग-द्वेष को दूर कर आलोचना ३. अवश्यकरणीय भिक्षाचर्या (भिक्षार्थ गमन) आदि करने को पालोचनाशद्धि कहते हैं। में यद्यपि अपराध नहीं है, फिर भी आलोचना करना प्रावरण-१. प्रावरणं कारणभूतं (प्रज्ञानादिदोचाहिए क्योंकि प्रालोचना न करने पर अविनय षजनक) कर्म । अथवाxxxज्ञान-दर्शनावरणे होता है । पालोचना, प्रकाशकरण, और अक्खण (?) आवरणम् ।(प्रा. मी. वृ. ४)। २. प्रावियते आच्छाविशद्धि: ये सब समानार्थक हैं। ६ अपने रूप, नाम द्यतेऽनेनेत्यावरणम् । यद्वा प्रावृणोति आच्छादयति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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