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________________ आलम्बन-ग्रहणसाधन] २१२, जैन-लक्षणावली [पालीढ स्थान सार दे. वृ. २७-५)। ३. पालम्बनं बाह्यो विषयः। पालावियाणं बंधो होदि सो सम्वो पालावणबंधो (षोडशक वृ. १३-४)। णाम । (षट्खं. ५, ६, ४१-पु. १४, पृ. ३८) । १ सारा लोक ध्यान के पालम्वनों से भरा हुआ है। २. से किं तं आलावणबंधे ? पालावणबंधे ज णं ध्याता साधु जिस किसी भी वस्तु को आधार बना तणभाराण वा, कट्टभाराण वा, पत्तभाराण वा, पलाकर मन से चिन्तन करता है वही उसके लिए ध्यान लभाराण वा, वेल्लभाराण वा, वेत्तलता-वाग-वरत्तका पालम्बन बन जाती है। ३ ध्यान के आधार- रज्जु-वहिल-कुस-दब्भमादीएहिं पालावणबंधे समुभूत बाह्य पदार्थ को उसका पालम्बन कहा। प्पज्जइ, जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं संखेज्ज जाता है। कालं, सेत्तं पालावणबंधे। (भगवती ८, ९, ११आलम्बन-ग्रहरणसाधन-१. जेण वीरियेण प्राण- खण्ड ३, पृ. १०३)। ३. रज्जु-वरत्त-कट्ठदव्वादीहि पाण-भास-मणाणं पाउग्गपोग्गले कायजोगेण घेत्तुण जं पूधभूदाणं [दव्वाणं बंधणं सो आलावणबंधो प्राणपाण-भास-मणत्ताए प्रालंबिता णिसिरति तं णाम । (धव. पु. १४, प. ३४); कद्रादीहि वीरियं बालंबणगहणसाहणं ति वच्चति । (कर्मप्र. अण्णदव्वेहि अण्णदव्वाणं पालाविदाणं जोइदाणं जो चु. बं. क. ४, पृ. २१)। बंधो होदि सो सव्वो पालावणबंधो णाम । (धव. जिस शक्तिविशेष के द्वारा श्वासोच्छ्वास, भाषा पु. १४, पृ. ३६) । ३. तृण-काष्ठादिभाराणां रज्जुऔर मन के योग्य पुदगलों को काययोग से ग्रहण वेत्रलतादिभिः। संङ्ख्यकालान्तमहतौं बन्ध पालाकर श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनरूप से अवल- पनाभिधः ।। (लोकप्र. ११-३२) । म्बित कर निकालता है उसे पालम्बन-ग्रहण-साधन १ शकट (बड़े पहियों वाली गाड़ी), यान (समुद्र में कहते हैं। गमन करने वाली नौकाविशेष), युग (घोड़ा व आलम्बनशुद्धि- पालम्बनशुद्धिर्गुरु-तीर्थ-चैत्य-यति- खच्चर से खींचा जाने वाला तांगा जैसा), छोटे वन्दनादिकमपूर्वशास्त्रार्थ ग्रहणम्, संयतप्रायोग्यक्षेत्रमा- पहियों वाली छोटी गाड़ी, गिल्ली (पालकी), रथ र्गणम्, वैयावृत्यकरणम्, अनियतावासस्वास्थ्यसम्पा- (युद्ध में काम आने वाला), स्यन्दन (चक्रवर्ती आदि दने श्रमपराजयम् (मूला.-संपादनं श्रमजयो), महापुरुषों की सवारी), शिविका (पालकी), नानादेशभाषाशिक्षणम्, विनेयजनप्रतिबोधनं चेति गृह, प्रासाद, गोपुर और तोरण; इन सबका जो प्रयोजनापेक्षया पालम्बनशुद्धिः । (भ. प्रा. विजयो. लकड़ी, लोहा, रस्सी, चर्ममय रस्सी और दर्भ व मूला. टी. ११६१)। (काश) प्रादि से बन्धन होता है उसे पालापनबन्ध गुरु, तीर्थ, चैत्य एवं यति आदि की वन्दनापूर्वक- कहते हैं। अभिप्राय यह कि लकड़ी प्रादि अन्य अपूर्व शास्त्र के अर्थ को ग्रहण करना; संयत के द्रव्यों से जो पृथग्भूत दूसरे द्रव्यों का सम्बन्ध होता योग्य स्थान का अन्वेषण करना; साधुओं की वैया- है उसे पालापनबन्ध कहते हैं। वृत्य करना, अनियत आवासों में रहकर स्वास्थ्य- प्रालीढ स्थान-१. तत्थ पालीढं नाम दाहिणं लाभ करना, परिश्रमजयी होना, नाना देशों की पायं अग्गतोहुत्तं काऊणं वामपायं पच्छतोहुत्तं उसाभाषाओं का सीखना, तथा विनेय (शिष्य) जनों रेउ अंतरा दोण्हवि पादाणं पंच पाए। (प्राव. नि. को प्रतिबोध देना; यह सब प्रयोजन की अपेक्षा मलय. वृ. १०३६, पृ. ५६७)। २. तत्र दक्षिणमूरुआलम्बनशुद्धि है। मग्रतो मुखं कृत्वा वाममूरु पश्चान्मुखमपसारयति, पालापनबन्ध-देखो आलपनबन्ध । १. जो सो अन्तरा च द्वयोरपि पादयोः पञ्च पादाः, ततो वामआलावणबंधो णाम तस्स इमो णि सो-सगडाणं हस्तेन धनुगृहीत्वा दक्षिणहस्तेन प्रत्यञ्चामाकर्षति, वा जाणाणं वा जुगाणं वा गड्डीणं वा गिल्लीणं वा तत् पालीढस्थानम् । (व्यव. भा. मलय. व. २-३५, रहाणं वा संदणाणं वा सिवियाणं वा गिहाणं वा पृ. १३)। पासादाणं वा गोवराणं वा तोरणाणं वा से कटठेण २दाहिने पैर को प्रागे करके और बायें पैर को वा लोहेण वा रज्जुणा वा बभेण वा दम्भेण वा पांच पादों के अन्तर से पीछे पसार कर बायें हाथ जे चामण्णे एवमादिया अण्णदव्वाणमण्णदव्वेहि में धनुष लेकर दाहिने हाथ से उसकी प्रत्यञ्चा को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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