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________________ प्रस्तावना द्वारा हुआ है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुमा है मूल-अन्तरात्मा आदि । टीका-प्रात्मसंकल्प आदि । (१२) द्वादशानुप्रेक्षा-इसमें ६१ गाथायें हैं। इसमें अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व, संसार, लोक, अशचित्व, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, धर्म और बोधि इन १२ भावनाओं का विवेचन किया गया है। अन्तिम ४ गाथानों में अनुप्रेक्षाओं के माहात्म्य को प्रगट करते हुए कहा गया है कि अनुप्रेक्षा से चूंकि प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण, पालोचना और समाधि सम्भव हैं; अतएव अनुप्रेक्षा का चिन्तन करना चाहिए। यदि अपनी शक्ति है तो रात्रि व दिन सम्बन्धी प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, समाधि, सामायिक और आलोचना करना चाहिए। अनादिकाल से जो मोक्ष गये हैं वे बारह अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करके ही गये हैं। बहत कहने से क्या ? जो पुरुषोत्तम सिद्ध हुए हैं, होंगे, और हो रहे हैं। यह उसका (अनुप्रेक्षा का) माहात्म्य है। अन्त में अपने नाम का निर्देश करते हुए ग्रन्थकार कहते हैं कि इस प्रकार कुन्दकन्द मुनिनाथ ने निश्चय-व्यवहार को कहा है। जो शुद्ध मन से उसका विचार करता है वह परम निर्वाण को प्राप्त करता है। इसका प्रकाशन मूलरूप में पूर्वोक्त संग्रह में मा. दि. जैन ग्रन्थमाला से ही हुआ है । इसका उपयोग आर्जव धर्म और एकत्वानुप्रेक्षा आदि शब्दों में हुअा है ।। (१३) मूलाचार-यह मुनियों के प्राचार की प्ररूपणा करने वाला एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसके रचयिता बट्टकेराचार्य हैं । कुछ विद्वानों का कहना है कि प्रस्तुत ग्रन्थ की कुछ हस्तलिखित प्रतियों में ग्रन्थकर्ता के रूप में प्राचार्य कुन्दकुन्द के नाम का निर्देश पाया जाता है। इससे इसके रचयिता प्रा. कुन्दकुन्द ही प्रतीत होते हैं । दूसरे, बट्टकेर नाम के कोई प्राचार्य हुए भी नहीं दिखते', इत्यादि । कर्ता कोई भी हो, पर ग्रन्थ प्राचीन है व पहली दूसरी शताब्दी में रचा गया प्रतीत होता है । इसमें ये १२ अधिकार हैं-मूलगुण, बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तव, संक्षेपप्रत्याख्यानसंस्तर, समाचार, पंचाचार, पिण्डशुद्धि, षडावश्यक, द्वादशानुप्रेक्षा, अनगारभावना, समयसार, शीलगुण और पर्याप्ति । इनमें गाथासंख्या क्रम से इस प्रकार है-३६+७१+१४+७६+२२२+८२+१३+७६+१२५५१२४+ २६+२०६%१२५१ । (१) भूलगुणाधिकार- इस अधिकार में अहिंसादि पांच व्रत, पांच समितियां, पांच इन्द्रियनिरोध, छह आवश्यक, लोच, प्राचेलक्य (नग्नता), अस्नान, भूमिशयन, दन्तघर्षण का अभाव, स्थितिभोजन (खड़े रहकर भोजन) और एकभक्त (एक बार भोजन); इन मुनियों के २८ मूलगुणों का विवेचन किया गया है। (२) बृहत्प्रत्याख्यानसंस्तरस्तव-मरण के उपस्थित होने पर साधु को शिला अथवा लकड़ी के पाटे आदि रूप बिस्तर को स्वीकार करते हुए किस प्रकार से पाप का परित्याग करना चाहिए तथा उस समय प्रात्मस्वरूप आदि का चिन्तन भी किस प्रकार करना चाहिए, इस सबका यहां विचार किया गया है। (३) संक्षेपप्रत्याख्यानसंस्तरस्तव-किसी भयानक उपद्रव के कारण अकस्मात् मरण की सम्भावना होने पर आराधक जिन एवं गणधरादि को नमस्कार करते हुए संक्षेप से हिंसादि पांच पापों के साथ सब प्रकार के आहार, चार संज्ञाओं, आशा और कषायों का परित्याग करता है तथा सबसे ममत्व भाव को छोड़ कर समाधि को स्वीकार करता है। वह यह नियम करता है कि यदि इस उपद्रव के कारण जीवित का नाश होता है तो उक्त प्रकार से मैं सर्वदा के लिए परित्याग करता हूँ और यदि उस उपद्रव से बच जाता हूँ तो पारणा करूंगा। इस प्रसंग में यह कहा गया है कि यदि जीव एक भवग्रहण में समाधिमरण को प्राप्त करता है तो वह सात आठ भवग्रहण में निर्वाण को पा लेता है। १. देखिये 'पुरातन जैन वाक्यसूची' की प्रस्तावना पृ. १५-१६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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