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________________ प्रारम्भ-समारम्भ] २०६, जैन-लक्षणावली [आर्जव धर्म आरम्भविरत (अष्टम प्रतिमा धारक) कहते हैं। सेव्यन्ते स्वार्थप्रसाघकानि क्रियन्ते सम्यग्दर्शनादीनि पूर्व प्रतिमाओं के साथ पाठ मास तक स्वयं मोक्षसुखाथिभिरनयेत्याराधना पाराध्यनिष्ठ पाराप्रारम्भ न करने वाले श्रावक को प्रारम्भविरत कहा धकव्यापारः उपजातसम्यग्दर्शनादिपरिणामस्यात्मजाता है। नस्तद्गतातिशयवृत्तिः। (भ. प्रा. मूला. टी. १) । प्रारम्भ-समारम्भ-प्रारम्भसमारम्भो त्ति प्रारभ्य- ३. पाराधना परिशुद्धप्रव्रज्यालाभलक्षणा । (उप. प. न्ते विनाश्यन्त इति प्रारम्भा जीवास्तेषां समारम्भ व. ४६६) । उपमर्दः । अथवा प्रारम्भः कृष्यादिव्यापारस्तेन समा- १ सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप के उद्योतन, रम्भो जीवोपमर्दः । अथवा प्रारम्भो जीवानामुपद्रव- उद्यापन, निर्वहन, साधन एवं निस्तरण-भावान्तरणम्, तेन सह समारम्भः परितापनमित्यारम्भ-समा- प्रापण-को पाराधना कहते हैं। रम्भः, प्राणवधस्य पर्याय इति । अथवेहारम्भ-समा- अाराधनो भाषा-१. पाराहणी उ दव्वे सच्चा रम्भशब्दयोरेकतर एव गणनीयो बहसमरूपत्वादिति।xxx। (दशवै. नि. २७२)। २. प्राराध्यते (प्रश्नव्या. वृ. ११)। परलोकापीडया यथावदभिधीयते वस्त्वनयेत्यारा'प्रारभ्यन्ते विनाश्यन्ते इति प्रारम्भाः जीवाः' इस धनी। (दशव. नि. हरि.व. २७२)। निरुक्ति के अनुसार प्रारम्भ शब्द का अर्थ जीव २ जिस भाषा के द्वारा दूसरे प्राणियों को पीड़ा न होता है, उनके समारम्भ-पीडन का नाम पहुंचा कर वस्तु का यथार्थ कथन किया जाता है उसे प्रारम्भ-समारम्भ है । अथवा कृषि प्रादि व्यापार से प्राराधनी भाषा कहते हैं। जो प्राणिविघात होता है वह प्रारम्भसमारम्भ कह- प्राराम-१. विविधपुष्पजात्युपशोभित आरामः । लाता है । अथवा जीवों को उपद्रव के द्वारा जो (अनुयो. हरि. वृ. पृ. १७)। २. आगत्य रमन्तेऽत्र संतप्त किया जाता है उसे प्रारम्भसमारम्भ जानना माधवीलतागृहादिषु दम्पत्य इति स पारामः । चाहिए। अथवा प्रारम्भ और समारम्भ इन दो (जीवाजी. मलय. वृ. ३, २, १४२, पृ. २५८)। शब्दों में से किसी एक ही की गणना करना चाहिए। १ नाना जाति के पुष्पों से शोभित उपवन को प्राराधक-१. पंचिदिएहिं गुत्तो मणमाईतिविह- पाराम कहते हैं। करणमाउत्तो। तव-नियम-संजमंमि अ जुत्तो आराधनो प्रारोह-आरोहो नाम शरीरेण नातिदैर्घ्य नातिहोइ ।। (प्रोधनि. २८१, पृ. २५०)। २.णिहयकसानो ह्रस्वता,Xxx अथवा पारोहः शरीरोच्छायः। भव्वो दसणवंतो हु णाणसंपण्णो। दुविहपरिग्गह- (बृहत्क. व. २०५१)। चत्तो मरणे पाराहो हवइ॥ संसारसूहविरत्तो शरीर से न तो अति लम्बा होना और न अति वेरग्गं परमउवसमं पत्तो। विविहतवतवियदेहो मरणे छोटा भी होना, इसका ग्राम प्रारोह है। अथवा आराहो एसो ॥अप्पसहावे णिरो वज्जियपरदब्व- शरीर की ऊंचाई को पारोह कहते हैं। संगसुक्खरसो । णिम्महियराय-दोसो हवेइ आराहो प्रार्जव धर्म-१. मोत्तण कुडिलभाव णिम्मलहिदमरणे ॥ (प्रारा. सा. १७-१६)। ३.xxx येण चरदि जो समणो। प्रज्जवधम्म तइयो तस्स भव्यस्त्वाराधको विशुद्धात्मा। (भ. प्रा. मूला. १ दु संभवदि णियमेण । (द्वादशानु. ७३)। २. योगउद्धृत)। स्यावक्रता प्रार्जवम् । (स. सि. ६-६; त. श्लो. ६, जो पांचों इन्द्रियों से गुप्त है अर्थात् उन्हें अपने ६; त. सुखबो. ह-६; त. वृत्ति श्रुत. ह-६)। ३. अधीन रखता है, मन प्रादि (वचन व काय) तीन भावविशद्धिरविसंवादनं चार्जवलक्षणम् । ऋजुभाव: करणों की प्रवृत्ति में सावधान है। तथा तप, नियम ऋजुकर्म वार्जवम्, भावदोषवर्जनमित्यर्थः । (त. भा. व संयम में संलग्न है; वह पाराधक कहलाता है। 8-६)। ४. योगस्यावक्रता प्रार्जवम् । योगस्य प्राराधना-१. उज्जोवणमुज्जवणं णिबहणं साहणं काय-वाङ्मनोलक्षणस्यावक्रता आर्जवमित्युच्यते । च णिच्छ (त्थ)रणं । दसण-णाण-चरित्तं तवाणमारा- (त. वा. ६, ६, ४)। ५. प्रज्जवं नाम उज्जुगत्तणं हणा भणिदा ॥ (भ. प्रा. २)। २. पाराध्यन्ते ति वा अकुडिलत्तणं ति वा। एवं च कुव्वमाणस्स - ल. २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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