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________________ प्रस्तावना साधु तिर्यंचगति का पात्र होता है । यहाँ कुछ उदाहरण देते हुए भाव को प्रधान इस प्रकार से सिद्ध किया गया है १. शरीरादि से निर्ममत्व होकर भी बाहुवली को मान कषाय से कलुषित रहने के कारण एक वर्ष तक आतापनयोग से स्थित रहना पड़ा-तब तक उन्हें केवलज्ञान प्राप्त नहीं हुआ। २. मधुपिंग नामक मुनि शरीर और अाहारादि की प्रवत्ति को छोड़ करके भी निदान मात्र के कारण भावश्रमण नहीं हो सका। ३. वशिष्ठ मुनि भी निदान के दोष से दुःख को प्राप्त हना। ४. भाव के विना रौद्र परिणा हुया बाह मुनि जिनलिंग से युक्त होकर भी रौरव नरक को प्राप्त हा। ५. इसी प्रकार द्वीपायन मुनि दर्शन, ज्ञान और चारित्र से भ्रष्ट होकर अनन्तसंसारी हया। ६. बारह अंग और चौदह पूर्वरूप समस्त श्रुत को पढ़कर भी भव्यसेन मुनि भावश्रमणता को.-यथार्थ मुनिपने को नहीं प्राप्त हो सका। १ इसके विपरीत निर्मलबुद्धि शिवकुमार मुनि युवति जनों से वेष्टित होकर भी भावश्रमण होने से परीतर्ससारी-थोड़े ही समय में मुक्ति को प्राप्त करनेवाले हुए। २ तुष-माष की घोषणा करनेवालेदाल और छिलके के समान आत्मा और शरीर पृथक् पृथक् हैं, इस प्रकार प्रात्मस्वरूप का निश्चय करने वाले-शिवभूति मूनि अतिशय अल्पज्ञानी होकर भी केवलज्ञान को प्राप्त हए हैं। शालिसिक्थ (एक क्षुद्र मत्स्य) महामत्स्य के मुख के भीतर जाते-पाते अनेक जलचर जन्तुओं को देख कर विचार करता है कि यह कैसा मूर्ख है जो मुख के भीतर प्रवेश करने वाले जीवों को भी यों ही छोड़ देता है। यदि मैं इतना विशाल होता तो समस्त समुद्र के जन्तुओं को खा जाता। बस इसी पापपूर्ण विचार से वह जीवहिंसा न करता हा भी महानरक को प्राप्त हुआ। ___ इस प्रकार से आगे भाव पर अधिक जोर देते हुए अन्त में कहा गया है कि बहुत कहने से क्या ? अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष ये पुरुषार्थ तथा अन्य भी व्यापार (प्रवृत्ति) ये सब भाव पर ही निर्भर हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ भी 'षट्प्राभृतादि संग्रह' में श्रुतसागर सूरि विरचित टीका के साथ उक्त संस्था द्वारा प्रकाशित किया गया हैं। इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ हैटीका-अधःकर्म, अध्यधिदोष, अनिच्छाप्रवृत्तदर्शनबालमरण, अनुप्रेक्षा (स्वाध्याय), अभिहृत, अवधिमरण, अव्यक्त बालमरण, प्रावीचिमरण, प्रासन्न और उभिन्न आदि । ११. मोक्षप्राभत-इसमें १०६ गाथायें हैं । यहां सर्वप्रथम जिसने पर द्रव्य को छोड़कर कर्म से रहित होते हुए ज्ञानमय प्रात्मा को प्राप्त कर लिया है उस देव को नमस्कार करते हुए परम पदस्वरूप परमात्मा के कहने की प्रतिज्ञा की गई है। पश्चात् निर्वाण के स्वरूप को प्रगट करते हुए कहा गया है कि जिस (परमात्मा) को जानकर निरन्तर खोजते हुए योगी अव्याबाध, अनन्त व अनुपम सुख को प्राप्त करता है, उसका नाम निर्वाण (मोक्ष) है। आगे जीवभेदों का निर्देश करते हुए बतलाया है कि बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा के भेद से जीव तीन प्रकार के हैं। इनमें बहिरात्मा को छोड़कर अन्तरात्मा के उपाय से परमात्मा का ध्यान करना चाहिए। बहिरात्मा इन्द्रियां हैं, अर्थात् आत्मस्वरूप को न जानकर बाह्य इन्द्रियविषयों में जो पासक्त रहता है वह बहिरात्मा कहलाता है। प्रात्मा की कल्पना होना-उसे शरीर से भिन्न समझना, यही अन्तरात्मा का स्वरूप है। समस्त कर्ममल से जो रहित हो चुका है उसे परमात्मा या देव कहा जाता है । जो अात्मस्वरूप को न जानकर अचेतन शरीर के विषय में स्वकीय व परकीय की कल्पना किया करते हैं, उनका मोह पुत्र और स्त्री आदि के विषय में उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होता है। निर्वाण उसी को १ इन कथानकों को श्रुतसागर सूरि विरचित टीका से इस प्रकार जानना चाहिये--(१) बाहुबली गा. ४४, (२) मधुपिंग ४५, (३) वशिष्ठ मुनि ४६, (४) बाहु मुनि ४६, (५) द्वोपायन ५०, (६) भव्यसेन ५२. २. (१) शिवकुमार मुनि ५१, (२) शिवभूति मुनि ५३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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