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________________ ग्रागमभावच्यवनलब्धि ] १७७, ज्ञाता होकर उसमें उपयुक्त जीव को श्रागमभावचतुर्विंशतिस्तव कहते हैं । श्रागमभावच्यवनलब्धि - चयणलद्धिवत्थुपारो उवजुत्तो श्रागमभावचयणलद्धी । ( धव. पु. ६, पृ. २२८) । जैन - लक्षणावली च्यवनलब्धि नामक वस्तु का पारंगत होकर उसमें उपयुक्त जीव को श्रागमभावच्यवनलब्धि कहते हैं । श्रागमभावजिन जिणपाहुडजाणो उवजुत्तो आगमभावजिणो । ( धव. पु. ६, पू. ८) । taaron प्राभृत का ज्ञाता होकर उसमें उपयुक्त जीव को श्रागमभावजिन कहते हैं । श्रागमभावजीव - १. जीवप्राभूतविषयोपयोगाविष्टो मनुष्यजीवप्राभृतविषयोपयोगयुक्तो वात्मा आगमभावजीवः । ( स. सि. १-५ ) । २. तत्प्राभृतविषयोपयोगाविष्ट श्रात्मा श्रागमः । जीवादि - प्राभृतविषये णोपयोगेनाविष्ट ग्रात्मा श्रागमतो भावजीवो भावसम्यग्दर्शनमिति चोच्यते । (त. वा. १, ५, १०) । ३. तत्र जीवप्राभृतविषयोपयोगाविष्टः परिणत श्रात्मा श्रागमभावजीवः कथ्यते, मनुष्यजीव प्राभृतविषयोपयोगसंयुक्तो वाऽत्मा श्रागमभावजीब: कथ्यते । (त. वृत्ति श्रुत. १-५ ) । १ जीवविषयक अथवा मनुष्यजीव विषयक प्राभृत का ज्ञाता होकर उसमें उपयुक्त जीव को श्रागमभावजीव कहते हैं । श्रागमभावदृष्टिवाद - दिट्टिवादजाणो उवजुत्तो श्रागमभावदिट्टिवादो | ( धव. पु. ε, पृ. २०५) । दृष्टिवाद का ज्ञायक होकर उसमें उपयुक्त जीव को श्रागमभावदृष्टिवाद कहते हैं । श्रागमभावनन्दी - तत्राऽऽगमतो नन्दि-शब्दार्थस्य ज्ञाता तत्र चोपयुक्तः । (बृहत्क. मलय. वृ. २४) । नन्दी शब्द के अर्थ का ज्ञाता होकर जो तद्विषयक उपयोग से भी युक्त है उसे श्रागमभावनन्दी कहते हैं । श्रागमभावनमस्कार - स्थापना ( ? ) अर्हदादीनां श्रागमनमस्कारज्ञानं आगमभावनमस्कारः । (भ. श्रा. विजयो. टी. ७५३) । अरिहन्त प्रादि के नमस्कारविषयक श्रागम के ज्ञाता और उसमें उपयुक्त जीव को श्रागमभावनमस्कार कहते हैं । ल. २३ Jain Education International [ श्रागमभावबन्ध श्रागमभावनारक- - रइयपाहुडजाणो उवजुत्तो श्रागमभावणेरइश्रो णाम । ( धव. पु. ७, पृ. ३०) | नारकविषयक प्राभृत का ज्ञाता होकर जो जीव उसमें उपयुक्त है उसे श्रागमभावनारक कहते हैं । श्रागमभावपूर्ण - भावपूर्ण : ग्रागमतः पूर्णपदार्थः [र्थज्ञ: ] समस्तोपयोगी । ज्ञानसार वृ. १-८, पृ. ४) । जो 'पूर्ण' पद के अर्थ का ज्ञाता होकर तद्विषयक उपयोग से सहित हो उसे श्रागमभावपूर्ण कहते हैं । श्रागमभावपूर्वगत — चोदसविज्जाद्वाणपारो उवजुत्ता आगमभावपुव्वगयं । ( धव. पु. ६, पृ. २११ ) । चौदह विद्यास्थानरूप पूर्वो का पारंगत होकर जो जीव उसमें उपयुक्त है उसे श्रागमभावपूर्वगत कहते हैं । श्रागमभावप्रकृति[-जा सा श्रागमदो भावपयडी णाम तिस्से इमो णिद्द सो-ठिदं जिदं परिजिदं वायणोवगदं सुत्तसमं प्रत्थसमं गंथसमं णामसमं घोससमं । जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा परियट्टा वा प्रणुपेणा वा थय-शुदि-धम्मकहा वा जे चामण्णे एवमादिया उवजोगा भावे त्ति कट्टु जावदिया उवजुत्ता भावा सा सव्वा आगमदो भावपयडी णाम । ( षट्खं. ५, ५, १३६ - धव. पु. १३, पृ. ३६०) । जो जीव प्रकृतिविषयक स्थित व जित श्रादि घोषसम पर्यन्त श्रागमाधिकारों से युक्त होकर तद्विषयक वाचना- प्रच्छनादि में व्याप्त भी हो उसे श्रागमभावप्रकृति कहते हैं । श्रागमभावप्रतिक्रमण - प्रतिक्रमणप्रत्यय श्रागमभावप्रतिक्रमणम् । (भ. प्रा. विजयो. टी. ११६) । प्रतिक्रमणविषयक श्रागम के ज्ञान से युक्त होकर जो जीव तद्विषयक उपयोग से भी सहित हो उसे श्रागमभावप्रतिक्रमण कहते हैं । श्रागमभावबन्ध — जो सो आगमदो भावबंधो णाम तरस इमो गिद्द सो— ठिदं जिदं परिजिदं वायनोवगदं सुत्तसमं प्रत्थसमं गंथसमं णामसमं घोससमं । जा तत्थ वायणा वा पुच्छणा वा पडिच्छणा वा परियट्टा वा अणुपेणा वा थय-शुदि धम्मकहा वा जे चामण्णे एवमादिया उवजोगा भावे त्ति कट्टु For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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