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________________ आगमद्रव्य-अग्रायणीय] १७२, जैन-लक्षणावली [आगमद्रव्यनमस्कार १ जो जीव विवक्षित प्राभृत का ज्ञाता होकर वर्त- पारो अणुवजुत्तो पागमदव्वचयणलद्धी । (धव. मान में तद्विषयक उपयोग से रहित होता है उसे पु. ६, पृ. २२८) । प्रागमद्रव्य कहते हैं। जो 'च्यवनलब्धि वस्तु' का पारगामी होकर वर्तमान आगमद्रव्य-अनायरणीय--अग्गेणियपुव्वहरो अणु- में तद्विषयक उपयोग से रहित हो उसे प्रागमद्रव्यवजुत्तो पागमदब्बग्गेणियं । (धव. पु. ६, पृ. २२५)। च्यवनलब्धि कहते हैं जो अग्रायणीय पूर्व का ज्ञाता होता हुआ तद्विषयक प्रागमद्रव्यजिन-जिणपाहुडजाणो अणुवजुत्तो उपयोग से रहित होता है उसे आगमद्रव्य-अनाय- अविणट्रसंसकारो प्रागमदव्वजिणो। (धव. पु. ६, णीय पूर्व कहते हैं। पृ. ६)। प्रागमद्रव्यकरण-द्रव्यस्य द्रव्येण द्रव्ये वा करणं जो जित व्ये वा करण जो जिनप्राभूत का ज्ञाता होकर तद्विषयक संस्कार द्रव्यकरणमिति ।XXX अागमतः करणशब्दार्थ- से रहित होता हया वर्तमान में उसके उपयोग से ज्ञाता तत्र चानुपयुक्तः । (प्राव. भा. मलय. वृ. रहित हो उसे पागमद्रव्यजिन कहते हैं। १५३, पृ. ५५८)। प्रागमद्रव्यजीव-जीवप्राभृतज्ञायी मनुष्यजीवप्राकरण शब्द के अर्थ के ज्ञाता, पर अनुपयुक्त --तद्विष भृतज्ञायी वा अनुपयुक्त ग्रात्मा प्रागमद्रब्यजीवः । यक उपयोग से रहित-पुरुष को आगमद्रव्यकरण (स. सि. १-५; त. वृत्ति श्रुत.१-५) । कहते हैं। जीवविषयक अथवा मनुष्यजीवविषयक प्राभूत का प्रागमद्रव्यकर्म---१. xxxतपढ़मं । कम्मा ज्ञाता होकर जो वर्तमान में उसके उपयोग से रहित गमपरिजाणुगजीवो उवजोगपरिहीणो । (गो. क. है उसे प्रागमद्रव्यजीव कहते हैं। ५४)। २. तत्र कर्मस्वरूपप्रतिपादकागमस्य वाच्यवाचक-ज्ञातृ-ज्ञेयसम्बन्धपरिज्ञायकजीवो यः तदर्थाव प्रागमद्रव्यत्याग-द्रव्येण बाह्यवृत्त्या इन्द्रियसुधारण-चिन्तनव्यापाररूपोपयोगरहित: स प्रागमद्रव्य खाभिलाषेण उपयोगभूतेन वा यत् त्यागः द्रव्यकर्म भवति । (गो. क. जी. प्र. टी. ५४) । त्यागः, द्रव्यस्य द्रव्याणां वा पाहारोपधिप्रमुखस्य १ जो जीव कर्मागम का ज्ञाता होकर वर्तमान में त्यागः, द्रव्यरूपः त्याग: द्रव्यत्यागः, स च प्रागमत: तद्विषयक उपयोग से रहित होता है, उसे आगम द्रव्यत्यागः [त्याग] स्वरूपज्ञानी अनुपयुक्तः। (ज्ञानद्रव्यकर्म कहते हैं। सार वृ. ८, उत्थानिका, पृ. २६) । आगमद्रव्यकर्मप्रकृतिप्ताभृत-कम्मपयडिपाहुड - जो जीव त्यागस्वरूप का ज्ञाता होकर तद्विषयक उपयोग से रहित होता है उसे आगमद्रव्यत्याग जाणो अणुवजुत्तो आगमदव्यकम्मपयडिपाहुडं । (धव. पु. ६, पृ. २३०)। कहते हैं। दिट्रिवादजाणयो कर्मप्रकृतिप्राभत का जानकार होकर जो वर्तमान में प्रागमद्रव्यदृष्टिवाद-तत्थ तद्विषयक उपयोग से रहित हो उसे प्रागमदव्यकर्म- अणुवजुत्तो भट्टाभट्टसंसकारो पुरिसो अागमदव्वदिप्रकृतिप्राभूत कहते हैं। ट्ठिवादो। (धव. पु. ६, पृ. २०४) । प्रागमद्रव्यकाल ...अागमदो दव्वकालो कालपाह जो दृष्टिवाद का ज्ञाता होकर वर्तमान में तद्विषयक उपयोग से रहित होता हुआ उसके विस्मृत या डजाणगो अणुवजुत्तो। (धव. पु. ४, पृ. ३१४)। जो कालविषयक प्रागम का ज्ञाता होकर वर्तमान अविस्मृत संस्कार से युक्त हो उसे प्रागमद्रव्यमें अनुपयुक्त है उसे आगमद्रव्यकाल कहते हैं। दृष्टिवाद कहते हैं। प्रागमद्रव्यक्षेत्र--पागमदो दव्वखेत्तं खेत्तपाहड प्रागमद्रव्यनन्दी-तत्रागमतो नन्दिशब्दार्थज्ञाता जाणो अणुवजुत्तो। (धव. पु. ४, पृ. ५)। __ तत्र चानुपयुक्तः । (बृहत्क. वृ. २४) । जो क्षेत्रप्राभूत का ज्ञाता होकर वर्तमान में तद्वि- नन्दि-शब्द और उसके अर्थ का ज्ञाता होकर वर्तमान षयक उपयोग से रहित हो उसे पागमद्रव्यक्षेत्र में अनुपयुक्त पुरुष को आगमद्रव्यनन्दी कहते हैं। कहते हैं। प्रागमद्रव्यनमस्कार-नमस्कारप्राभूतं नामास्ति प्रागमद्रव्यच्यवनलब्धि-तत्थ चयणलद्धिवत्थु- ग्रन्थः यत्र नय-प्रमाणादि-निक्षेपादिमुखेन नमस्कारो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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