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________________ जैन-लक्षणावली प्रात्मख्याति -अध्यवसाय और अमूढदुष्टि प्रादि । तात्पर्यवृत्ति-अनेकान्त आदि। प्रस्तुत लक्षणावली में प्रा. कुन्दकुन्द विरचित इन अन्य ग्रन्थों का भी उपयोग हुया है 'प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, नियमसार, दर्शनप्राभृत, चारित्रप्राभृत, बोधप्राभृत, भावप्राभृत, मोक्षप्राभृत और द्वादशानुप्रेक्षा। ४. प्रवचनसार-इसमें ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन, ज्ञेयतत्त्वप्रज्ञापन और चरणानुसूचिका चूलिका ये तीन श्रुतस्कन्ध (अधिकार) हैं। इनमें अध्यात्म की प्रधानता से ज्ञान, ज्ञेय और चारित्र का निरूपण गया है । इनकी गाथा संख्या ६२+१०८७५-२७५ है। इसके ऊपर भी प्रा. अमृतचन्द्र और जयसेन के द्वारा पृथक-पृथक् टीका लिखी गई है। इसका एक संस्करण परम श्रुत प्रभावक मण्डल बम्बई से उक्त दोनों टीकामों के साथ प्रकाशित हुआ है। इसका उपयोग इन शब्दों में हना है मूल-अशुभोपयोग और उपयोग आदि । अमृत. टी.--अपवाद, अपवादसापेक्ष उत्सर्ग, अलोक, अशुद्ध उपयोग, अशुभोपयोग, उपयोग । जय.टी.-अर्थपर्याय और अलोक आदि । ५. पंचास्तिकाय-यह प्रथम व द्वितीय इन दो श्रुतस्कन्धों में विभक्त है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये छह द्रव्य हैं। जो गुण और पर्यायों से सहित हो उसे द्रव्य कहते हैं। मूर्त और अमूर्त द्रव्यों के जो निविभाग अंश हैं वे प्रदेश कहलाते हैं। जो द्रव्य ऐसे प्रदेशों के समूह से संयुक्त हैं उन्हें अस्तिकाय कहा जाता है। वे पाँच हैं-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश । गुण और पर्यायों से संयुक्त होने के कारण यद्यपि काल भी द्रव्य है, पर प्रदेशप्रचयात्मक न होने से उसे अस्तिकायों में नहीं ग्रहण किया गया है। उसके भी स्वरूप आदि का दिग्दर्शन यहाँ संक्षेप में करा दिया गया है। इस प्रकार पाँच अस्तिकाय और काल इन छह द्रव्यों की प्ररूपणा यहाँ प्रथम श्रुतस्कन्ध में की गई है। इस प्रथम श्रुतस्कन्ध का उपसंहार करते हुए ग्रन्थकार ने कहा है-जो परमागम के सारभूत पंचास्तिकायों के संग्रह को जान करके राग और द्वेष को छोड़ता है वह दुःख से छुटकारा पा लेता है । इस शास्त्र के अर्थ को-शुद्ध चैतन्यस्वभाव आत्मा को जान कर उसके अनुसरण में उद्यत होता हा जो जीव दर्शनमोह (मिथ्यात्व) से रहित हो जाता है वह राग-द्वेष को नष्ट करता हुआ पूर्वापर बन्ध से रहित हो जाता है-दु:ख से मुक्ति पा लेता है। आगे द्वितीय श्रतस्कन्ध में प्रथमतः मोक्षमार्ग के विषयभूत जीव, अजीव, पूण्य, पाप, प्रास्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष इन नौ पदार्थों का विवेचन किया गया है। तत्पश्चात् मोक्षमार्ग स्वरूप ज्ञान, दर्शन और चारित्र के स्वरूप को बतला कर परचरित (परसमय) और स्वचरित (स्वसमय) का विचार करते हुए कहा गया है कि संसारी जीव यद्यपि स्वभावनियत है--ज्ञान-दर्शन में अवस्थित हैफिर भी अनादि मोहनीय कर्म के उदय से वह विभाव गृण-पर्यायों से परिणत होता हुआ परसमय है। यदि वह मोहनीय के उदय से होने वाली विभाव परिणति से रहित होकर अत्यन्त शुद्ध उपयोग वाला हो जाता है तो वह कर्मबन्ध से रहित हो सकता है। इत्यादि प्रकार से यहाँ निश्चय-व्यवहारस्वरूप मोक्षमार्ग का विचार किया गया है। अन्त में ग्रन्थकार के द्वारा कहा गया है कि मैंने प्रवचनभक्ति से प्रेरित होकर मार्गप्रभावना के लिए प्रवचन के सारभूत पंचास्तिस ग्रह सूत्र को कहा है। इस पर भी अमृतचन्द्र सूरि विरचित तत्त्वदीपिका और जयसेनाचार्य विरचित तात्पर्यवृत्ति नाम की दो टीकायें हैं। इसकी गाथासंख्या १०४+६६=१७३ है। इन दोनों टीकाओं के साथ वह परम श्रुत प्रभावक मण्डल बम्बई से प्रकाशित हुआ है । इसका उपयोग इन शब्दों में हुआ है - मूल-अधर्मद्रव्य, अस्तिकाय और आकाश आदि । तत्त्वदी. -अकालुष्य, अचक्षुदर्शन, अजीव, अपक्रमषट्क, अभिनिबोध, अलोक, अशुद्ध चेतना, अस्ति-प्रवक्तद्रव्य, अस्तिद्रव्य, अस्ति-नास्ति-प्रवक्तव्यद्रव्य और अस्ति-नास्तिद्रव्य आदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016021
Book TitleJain Lakshanavali Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBalchandra Shastri
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1978
Total Pages446
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size12 MB
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